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शंका १३ और उसका समाधान का समाधान
६७१ अध-जिनबिबका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण किस प्रकार है ?
समाधान-जिनबिंब दर्शनसे निर्यात और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्णकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनविबका दर्शन प्रथम सम्वरवतो उत्पत्तिका कारण या है।
जिणरचरणबुरु णमंति जे परमभतिराएण । ते जम्मलिमूलं सणंति वरभावसाचेण ।।१५३।।
-मात्रपाहुड अर्थ-- पुरुष परम भक्ति अनुराग कर जिनवरके चरणकमलको नम है ते अभावरूप दास्त्र कर जन्म कहिये संसाररूपी वेस ताका मूल जो मिथ्यात्व आदि ताहि खणे है, नष्ट करें है।
दिटे तुमम्मि जिणवर दिद्विहरासेसमोहृतिमिरेण । सह पढ़े जह दिटुं तं मए तच्चं ॥२॥
-पद्यनन्दि पंचशिति अ०१४ अर्थ है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर ददान में बाधा पहँचानेवाला ममस्त मोह ( दर्गनमोह ) रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथास्थित तत्त्व को देख लिया है, अर्थात् सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है।
जो मिथ्याधि, परमार्थको न जानते हुए, मात्र विषय सामग्री नया सांसारिक सुद्धको प्राप्तिक त्यसे अप्रज्ञास्त रागसहित कुछ शुक्रिया करता है और उससे जो पुण्यबन्ध होता है, वह पुण्यभार तथा पुग्यबन्ध संसारका ही कारण है । श्री प्रवचनसार प्रथम अध्याय आदि ग्रन्थोंमे ऐसे पुण्य या शुभभावको ही पूर्णतया हेय दिखलाया गया है । किन्तु परमार्थ दृष्टिसे किये हुए शुभभाष मा व्यवहार धर्मका कथने श्री प्रवचनसार ततोय अध्याय आदि ग्रन्थों में है और रमको मोशका साधन बनाया है। बहुत स्थानों पर आमममें व्यबहाराभास ( एकान्त मिथ्या व्यवहार ) का भी व्यवहारके न मसे कहकर निषेध किया गया है । इत्यादि विशेषता भी ध्यान रखने योग्य है। थो समयसार गा० १४५ व १४७ में (जिनको आपने उद्बुत किया है ) मात्र पुण्य तथा पापरूप द्रव्यकोका ब्यारूशन है। पृण्य या पापभावका नहीं है। यहां पुण्य तया पाप कर्मोवो बन्धकी अपेक्षा समान बतलाया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एकान्तरूपसे सर्वथा समान ही है । जो मांसारिक विषय भोगोंकी अपेक्षासे पुण्य कसंबवको ही उपादेय ग्रहण कर उसमें हो तल्लीन रहते हैं उनको समझाया जा रहा है कि पुण्य में राग मत करो। एरो जोवको परमार्थकी तो खबर ही नहीं है। किन्तु १४५ की टोकामें श्री मुरिजीने स्पष्ट कर दिया है कि परमार्थदृष्टि सहित) जोयका शुभभात्र मोक्षका कारण है जिसका उद्धरण पत्रिका में दिया जा चुका है।