SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका १३ और उसका समाधान કડી भाचार्य अमृतचन्द्र लिखते होता हुआ यह की धमका अनुभव करता है यह कहा गया है। इनको टोका है कि इस सिद्ध है कि किया और क्रियाका पात्र मोहोदय अर्थात् मोहके उदयमें बत होनेके कारण होता है. ज्ञानसे नहीं होता अर्थात् ज्ञानस्वभाव में युक्त होने के कारण नहीं होता-अतो मोहोदयात् क्रिया- क्रियाफले, न तु ज्ञानान् । पुण्यरूप इस पर यह शंका होने पर कि अन्तक्रिया वो देखी जाती है पर उसका फल नहीं देखा जाता सो क्यों ? कुन्दकुन्दने इन्हीं दोनोंका ४४ और ४५ संस्थाक गाथाओं द्वारा उतर दिया है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृत मूल प्रदन में 'पुष्णफला' में आये हुए ष्ण परसे कर्मका उद ही गृहीत है। गगनादि क्रियाको गाथा ४५ के पूर्व द्वारा औदयिक स्त्रीकार करने का भी यही आशय है। ऐसा मालूम पड़ता है कि अब पीकर प्रकृति आदि पुण्य कर्मकि उदयको दृष्टि ओसल करके अन्य मागमे अपने को जोबिल बनाये रखना चाहता है । बन्यथा वह पक्ष मूल प्रश्न जिस आशय से किया गया है वहीं तक अपने को मोमित रखकर अपने विचार प्रस्तुत करता और उन्होंक पुछि सास्थधार भी उपस्थित करना अस्तु. हमने पिछले उत्तर दिया था 'सम्यग्दृष्टि जीवके भेदविज्ञानकी जागृति के साथ-साथ पारत्रिरक्लि होती है। इस पर रक्षा करना है कि पर्यायानामभोग है। इसमें प्रशस्त राग भी है तथा सम्यक्त्व व परिणित्तिकी निजता भी है ।' अपने विचारको अपर पक्षचरिताय गाथा १३१ को टोकाको उपस्थित किया है। इसमें प्रशस्त राग और चित्तप्रमाद जहाँ है वह शुभ परिणाम है यह कहा गया है। अब आगम इन दोनों शब्दों का अर्थ किया है इस पर विचार करता है। आचार्य कुन्दकुन्दनं पंचास्तिवाय गावा १३५ में प्रगत राग, अनुकम्पपरिणति और जिसकी अकुलता इन लीगको शुभ परिणाम कहा है। इन तीनोंका अर्थ करते हुए आचार्य जयमेन इसकी टीका लिखते क्या - अथ निरापदार्थाश्रतिपक्षभूतं शुभाति शोरागोव प्रशस्तः वीतरागपरमात्मदस्याद्विलक्षणः परमं निर्भरगुणानुरागरूपः प्रशस्त धर्मानुरागः । अणुसंसिदो परिणामी अनुकम्पायंत्रित परिणामः दयाहां मनोवचन कायापाररूपः शुभपरिणामः । चित्तविकालुष्यं मनसिकोपादिरुपपरिणामी नास्ति पुण्णं जीवरस दिपक व शुभपरिणाम सन्ति तस्य जीवस्य स्ययकारणभूतं भावपुण्यमानवतीति सूत्राभिप्रायः । अब निरास आम्भवदार्थ प्रतिपभूत सुभाषनका व्याख्यान करते हैं- शमी जस्स साधीराग जिसका प्रदान है अर्थात् जिसका वीतराग परमात्मा द्रव्यमे विलक्षण जो पंच परमेष्ठो में अत्यन्त गुणानुराम धर्मानुराग है। अनुकंपानंसिदो व परिणामी जिसका अनुया गुस्त परिणाम है अर्थात् जिनका दया सहित मन, वचन, काम व्यापारम्य शुभ परिणाम है तथ प्री-जसके चित्त का नहीं है अर्थात् क्रमादिरूप कलुष परिणाम नहीं है। पुष्णं जीवस्स आसवदि जिसके पूर्वोक्त ये तीन शुभ परिणाम है उस जीवके द्वय पुष्पके आलवका निमितभूत भावपुण्यासब है यह मूल गाथाका तात्पर्य है । यहाँपर 'वीतराग परमात्मन्यसे विलक्षण' यह विशेषण उक्त तीनों परिणामोंपर लागू होता है । ८५
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy