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________________ जयपुर (खानिया) तत्र चर्चा इससे स्पष्ट है कि शुभ परिणाम, शुभ भाव या शुभोपयोग उक्त विधिसे तीन प्रकारका ही होता है१. अरिहन्तादिविषयक प्रशस्त राग २ दयापरिणाम अर्थात् अणुव्रत महाव्रतादिरूप शुभ परिणाम और ३. चित्तमें कोधादिरूप कलुषताका न होना । प्रशस्त राग क्या है इसकी व्याख्या करते हुए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द पंवास्तिकाय गाथा १३६ में लिखते हैं ६७४ अरहंत साहु भती घम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगम पि गुरूणं पसस्थरायो शिसि ॥ १३६ ॥ ठान ले तथा गुरुओं का अनुगमन करना यह सब रशिद्ध प्रशस्त राग कहलाता है ।। १३६ ।। यहाँपर धर्म पदसे व्यवहार चारित्रका अनुष्ठान लिया गया है । आचार्य अमृतचन्द्र इसकी टीका में लिखते हैं- अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवल भक्तिप्रधानस्याज्ञानिनां भवति । उपग्लिन भूमिकाग्राम लब्धास्पदस्यास्थान रागनिषेधार्थ वीरागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवति । यह ( प्रशस्त राग ) स्थूल लक्ष्यवाला होनेसे केवल भक्तिप्रधान अज्ञानीके होता है । तथा उपरितन भूमिका में स्थिति न प्राप्तकी हो तब अस्थान राग ( इन्द्रियादि विषयक राग ) का निषेध करनेके लिए अथवा तीव्र रागज्वरका परिहार करनेके लिए कदाचित् ज्ञानीके भी होता है || १३६ ॥ जयसेनाचार्य शब्दों में इसका आशय यह है— तत्प्रशस्तरागमज्ञानी जीवो भोगाकांक्षारूपनिदानबन्धेन करोति स ज्ञानी पुनर्निर्विकरूपसमायभावे विषय कषायरूपाशुभरागविनासार्थं करोतीति भावार्थः । उस प्रशस्त रागको अज्ञानी जीव भोगाकांक्षारूप निदानबन्धके साथ करता है। किन्तु ज्ञानी जीव निर्विकल्प समाधि के अभाव में विषयकषाय अशुभ रागका विनाश करनेके लिए करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने अनुकम्पा क्या है इसका निर्देश आगे १३७ वीं गाथा में किया है। अतएव इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि अपर पक्ष सम्यदर्शन व सम्यक्चारित्र शुद्धिके साथ कषायको जिस मिश्रित अखण्ड पर्यायको कल्पना कर उसे शुभभाव या शुभपयोग कहना चाहता है वह ठीक नहीं है । यह उस पक्षी अपनी कल्पना है | आगमका यह आशय नहीं है । जब यह जीव संसारके प्रयोजनभूत पंचेन्द्रियोंके विषयों आदि में उपयुक्त रहता है तब अशुभपयोग होता है, जब पंच परमेष्ठी आदिको भक्तिस्तुति आदिमें, व्रतोंके पालने में तथा अन्य शुभ प्रवृत्ति में उपयुक्त रहता है तब शुभपयोग होता है और जब विज्ञानघनस्वरूप अपने आत्मा में उपयुक्त होता है तब शुद्धोपयोग होता है । प्रवचनसार गाथा ९ का यही आशय है । जीव उपयोगलक्षणवाला है। वह अपने इस लक्षण से सदा अनुगत रहता है यह उधव गाथा मे बललाया गया है हम अभी प्रवचनसार गाथा ४३ का आशय लिख माये है। उसके साथ इस गाथाको पढ़ने पर इसका आशय स्पष्ट हो जाता है । '
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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