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शंका १३ और उसका समाधान
६७५ यह अपर पाही स्वीकार करेंगा कि मांय दा हो प्रकारको होती है--स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । सम्यग्दर्शन यह श्रद्धागुणको स्वभाव पर्याय है। यह चारि गुणकी पर्यायसे भिन्न है, इसलिए इसके साथ तो चारित्र गुणकी मिश्रित अखण्ड पर्याय बन नहीं सकती। चारित्र गुणको अवश्य ही संयमा' संयम और संयमरूप मिश्र पर्याय होती है, क्योंकि उसमें शुद्धयश और अशुद्धर्थश दोनोंका युगपत् सद्भाव होता है । उपमें जो शुद्धग्रंश है वह स्वयं संवर-निर्जरास्वरूप होनेसे संवर. निर्जराका कारण भी है । पण्डितप्रदर दौलतराम जी छहदालाके मंगलाचरण में इसीकी स्तुति करते हुए लिखते हैं
तीन भुत्रनमें सार वीतराग-विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ।।१।। यह अपने प्रतिपश्चभूत अशुद्धचंशका व्यय होकर उत्पन्न हुई है, इसलिए इसका स्वयं संवर-निर्जरा स्वरूप होकर संबर-निर्जराका कारण बनना युक्त ही है।
तथा उस मित्र पायमें जो अद्धि अंश शेष है वह स्वयं अशुद्धिस्वरूप होनसे आसव-बन्धरूप है और मानव बन्धका कारण भी है।
इस प्रकार शुद्धपर्याय और अशद्ध पर्यायके भेदसे जहाँ पवि दो प्रकारकी है वहाँ विषयभेदसे उपयोग तीन प्रकारका है-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग । जब इस जोवका परलक्षी उपयोग होता है तब वह नियमसे मोह, राग या द्वेष से अनुरंजित होकर प्रवर्तता है। उपयोगके शुभ और अशुभ इन दो भेदोंके होनेका यही कारण है। उनमसे इन्द्रियविषयों में अनरक्त होना अशभोपयोग है। कारण स्पष्ट है । तथा उक्त तीन प्रकारकी शुभ प्रवृत्तियों में उपयुक्त होना शुभोपयोग है । है तो यह भी रागसे अनुरंजित हो, उससे बहिभूत नहीं है । परन्तु इसमें जिन्होंने मुक्ति प्राप्त की है या मुक्तिमार्गका अनुसरण कर रहे हैं उनके प्रति अनुरागको मुख्यता है, इसलिए इसे अशुभोपयोगमें परिगणित न कर उससे भिन्न बतलाया है। इनमेंसे अशुभीपयोग मुख्यतया मिथ्याटिके होता है और शुभोपयोग यथायोग्य सम्यग्दृष्टिके होता है। सम्यग्दृष्टिके अशुभोपयोगकी गोणता है, किन्तु सम्यग्दष्टिके मात्र दाभोपयोग ही होता हो यह बात नहीं है, उनके शद्धोपयोग भी होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि निरन्तर आत्मस्वभावका अवलम्बन कर प्रवर्तना ही अपना प्रधान कतं समझता है । उसके अशुभफे परिहार स्वरूप शुभप्रवृत्ति होती है, परन्तु उसे बन्धका कारण जान हेयबुद्धिसे ही वह उसमें प्रवर्तता है । सम्यग्दृष्टिके शुभ प्रवृत्तिका होना अन्य बात है और उसके शुभप्रवृत्तिके होते हुए भी उसमें हेय बुद्धिका बना रहना अन्य बात है। सम्बग्दष्टि मोक्ष के साक्षात् साधनभूत
आत्मस्वभावको हो उपादेय समझता है, इसलिए उसकी उसके सिवाय अन्य सबमें स्वभावतः । हेयबुद्धि बनी रहती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार शुभोपयोग क्या है और वह पुण्यभात्र, व्यवहारधर्म र ध्यवहार चारित्ररूप कैसे है यह स्पष्ट हो जाने पर अपर पक्षकी इम कल्पनाका अपने आप निराशा हो जाता है कि 'शुभोपयोग या शुभ भाव सम्यक्त्व व चारित्रकी मिश्रित अखण्ड पर्यायरूप है।'
अपर पक्षका कहना है कि 'उस शुभ भाव था अपवहार धर्ममें भी लक्ष्य या ध्येय बौतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात मोक्षकी प्राप्ति ही रहती है। पर्यायकी निर्बलताके कारण वह जीव वीतरागता स्थित नहीं हो पाता है। इस कारण उसको राग व विकल्प करने पड़ते हैं। किन्तु उस राग या विकल्पद्वारा भी बह वीतरागताको ही प्राप्त करना चाहता है।' आदि।