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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा
समाधान यह है कि सर्व प्रथम तो अगर पतको यह ध्यान में लेता है कि राग या विकल्प विरुद्ध स्वभाववाले है और उनसे वीतरागता विरुद्ध स्वभाववाली है, क्योंकि राग या विकल्पका अन्य ध्यतिरेक परके साथ है और वीतरागताका अन्ववयतिरेक आत्मस्वभाव के साथ है । नलिए सर्वप्रथम तो यह निर्णय करना आवश्यक है कि मुझे सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयस्त्ररूप आत्मवकी प्राप्ति आत्म-स्वभाव के लक्ष्यसे रूप परिणमन द्वारा हो होगी, राग या विकल्प द्वारा त्रिकाल में प्राप्त नहीं होगी ।
अपर पक्ष कह मकता है कि आत्मस्वभाव के लक्ष्यसे तत्स्वरूप परिणमन द्वारा वीतरागताकी प्राप्ति होती है, ऐसा विचार करना भी तो विकल्प हो है ? समाधान यह है कि इसमें भेद विज्ञानको मुख्यता है और रागको गौणता है, इसलिए स्वभावको दृढ़ता होने वह विकल्प स्वयं छूट जाता है और आत्मा स्वभावसन्मुख हो तत्वरूप परिणम जाता है। इसीका नाम है आत्मानुभूति । यह निराकुल जानमुखस्वरूप होने से स्वयं वीतरागतास्व
दुगरे अपर ने जब कि व्यवहारधर्म में मोक्षप्राप्तिको लक्ष्य स्वीकार किया है । ऐसी अवस्था में उस पक्षको निश्रियाद से उसके स्थान में यह स्त्रीकार कर लेना चाहिए कि उसकी प्राप्तिका साक्षात् साधन भूतार्थनयका विषयभूत आत्माका आश्रय करना ही उपाय है, अन्य सब जैसे नंगार रहते हुए भी मोक्ष माधना तभी होती है जब संसार में ययुद्धि हो जाती हैं । इम प्रकार व्यवहार धर्मरूप प्रवर्तले हुए मो जिसकी उसमें हेय बुद्धि हो जाती है वही स्वभाव आलम्बन द्वारा सरस्वरूप परिणमनरूपमक्षिका अधि कारी बनता है, अभ्यं नहीं । व्यवहारधर्म स्वयं आत्माका कर्तव्य नहीं है । वह तो पुरुषार्थहीनता का फल है ।
तीसरे अपर पक्ष 'उस शुभ भाव या व्यवहार धर्म में भी लक्ष्य या ध्येय वीतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्षको प्राप्ति हो रहती है । यह वचन लिखकर आत्माके पंचमे विषय या व्रतानि विषयक विकल्पको शुभभाव या उपवहार धर्म कहते है इस लक्ष्यको स्वयं स्वीकार कर लिया है । अतएव अपर पक्ष ने सम्यक्त्व व चारिकी मिश्रित अखण्ड पर्यायको व्यवहार धर्म कहते हैं इस मान्यताको छोड़कर यही स्त्रीकार कर लेना चाहिए कि व्रताविरूप जीवकी शुभ प्रवृत्ति या शुभ विकाको हो आगममें व्यवहार धर्म कहा है । वह रागानुरंजित जीवका परिणाम होनेसे बन्धका ही कारण है ।
यहाँ पर यह शंका होती है कि उपयोग के समान पर्याय को भी विभाव पर्याय स्वभाव पर्याय और मिश्र पर्याय ऐसा तीन प्रकारका मानने में आपत्ति हो क्या है ? समाधान यह है कि जिसे चारित्रको मिश्र पर्याय कहते हैं उसमें जितना शुद्धवंश है वह स्वप्रत्यय जांनकी अवस्था है, क्योंकि वह स्वभाव के लक्ष्य से अपनी प्रतिपक्षी अवस्थाका नाश कर उत्पन्न हुई है, और जितना अशुद्धवंश हैं वह स्व-परप्रत्यय जीवको अवस्था है, क्योंकि वह परके लक्ष्यसे अपनी पूर्व प्रवृत्त विकाररूप अवस्थाके अनुरूप उत्पन्न हुई है, इसलिए शुङ्खधंशका स्वभाव पर्याय में और अशुद्धघशंकर विभाव पर्याय अन्तर्भाव हो जाने के कारण हमले पर्यायको दो ही प्रकारका बतलाया है। आगममे भी पर्यायको दो ही प्रकारका बतलाया है। प्रवचनसार गाथा ६३ में गुण पर्याय इन भेदोंको बतलाते हुए लिखा है— सोऽपि द्विविधः-स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च ।
वह गुणपर्याय भी दो प्रकारकी है - स्त्रभाव पर्याय और विभाव पर्याय |
आलापद्धति में भी लिखा है
विकाराः पर्यायाः । ते द्वेधा स्वभाव-विभावपर्यायभेदात् !