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________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा नयकी अपेचा बतलाया गया है 1 और अंतमें भट्टाकलंकदेवके द्वारा प्रतिपादित 'तारशी जायते बुद्धिः' इत्यादि कारिका उपस्थित कर यह सिद्ध कर दिया है कि भवितव्यताके अनुसार बुद्धि होती है, वैसा ही प्रयत्न होता है और सहायक भी उसीके अनुरूप मिलते हैं। किन्तु जान पड़ता है कि अपर पच आगमिक कार्य-कारणपद्धतिमें अपने पक्षका समर्थन नहीं समझता । उस पक्षका यह दाष्टकोण पांचवें प्रश्न पर उपस्थित की गई प्रतिशंका ३ से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। वहां स पक्ष ने केवल शामकी अपेक्षा आगम प्रतिपादित हमारे अभिप्रायको स्वीकार करके भी तज्ञानको अपेक्षा विवादको नया मोष्ट देते हुए लिखा है कि 'भगवान के ज्ञानमें जिस काल में जिस वस्तुका जैसा परिणमन झलका है वह उसी प्रकार होगा । प्रत्येक सम्यग्दृष्टिकी ऐमी ही श्रद्धा होली है । इसलिए फेवलज्ञान के विषयके अनुसार तो सभी कार्य नियत क्रमसे ही होते है और सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धा भी ऐसी ही रखता है। किन्तु श्रुतज्ञानीके इतने मात्रसे सब समस्याएं हल नहीं हो जाती, इसलिए शुतज्ञानके विषयके अनुसार कुछ कार्य नियत क्रमसे भी होते हैं और कुछ कार्य अनियत कमसे भी होते है ऐसा बनेकान्त ही ठोक है।' ___ अपर १क्ष द्वारा पांचवें प्रश्नपर प्रतिशंका ३ जिस आधारपर उपस्थित की गई है उसका यह सार है। इससे अपर पक्षका ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि अपर पक्ष प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप मात्र अपने माने हुए श्रुतमानको अपेक्षा ही मानना चाहता है, केवलज्ञानको अपेक्षा नहीं। दूसरी बात यह भी मालूम होती है कि सभी द्रव्यों के सभी कार्य हाती है। गहमर केवलज्ञान उनको उसी रूपमें जानता है। परन्तु अपर पक्षके श्रतज्ञानमें बे उस रूपमें नहीं झलकते । मात्र इसीलिए कुछ कार्य नियतक्रमसे होते हुए प्रतीत होते है और कुछ कार्य अनियसक्रमसे होते हुए प्रतीत होते है । उक्त वस्तष्पमें अपरपक्षने कौनसा श्रुतलान लिया है-लौकिक ध्रुतज्ञान या सम्यक श्रद्धानुसारी सम्यक तज्ञान ? इसका उसकी ओरसे उक्त प्रतिशंकामें यद्यपि कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। किन्तु सभ्य श्रद्धा विहीन जो श्रुतज्ञान होगा वह लौकिफ ही होगा यह स्पष्ट है । ___जहाँ तक प्रकृत प्रतिशंकासे सम्बन्ध है सो उसमें भी अपर पक्षका वही दृष्टिकोण कार्य कर रहा है। इसे उपस्थित करते हुए अपर पक्षने पहले तो निमित्तकारणता व्यवहारनयसे है' इसे स्वीकार कर लिया है, किन्तु यहाँ ब्यवहार शब्दका दाय क्या है इसमें उसे विवाद है। हम अपने पिछले उत्तरमें बृहदाव्यसंग्रह गाथा ८ का उसरण देकर प्रकृतमें ब्यवहारका अर्थ असद्भुत व्यवहार है यह बागम प्रमाणके साथ बतला आये है, परन्तु अपर पक्ष यह कहकर कि हम व्यवहारका अर्थ कल्पनारोपित करते हैं, मुरूप विषयसे विचारकोंकी दृष्टि हटाना चाहता है। १. व्यवहारनय और उसका विषय जैसा कि यहां की गई सूचनासे ज्ञात होता है, अपर पक्षने व्यवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंका पृषक् पृथक् स्थल पर प्रकरणानुसार क्या अर्थ इष्ट है इसका विचार प्रश्न १७ की प्रतिशंका में किया है सो इस विषयपर तो विशेष विचार हम वहीं करेंगे। मात्र प्रकृति में प्रकरणानसार उसकी ओरसे इस प्रतिशंकामें जो व्यवहारनय और निश्चयनयके लक्षण स्वीकार किए गए है वे यथार्थ न होकर कल्पमारोपित कैसे है इसका यहाँ सर्व-प्रथम विचार अवश्य कर लेना चाहते है। इससे प्रकृतमें व्यवहाररूप अर्थ और निश्चय रूप अर्थ क्या होना चाहिए इसका भी यथार्थ बोध हो जायेगा । अपर पक्षने व्यवहारनय और निश्चयनयका लक्षण करते हुए लिखा है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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