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________________ शंका है और उसका समाधान पियरूप असा व्यवहार अर्थका प्रतिगादक वचन व्यवहारनय और व्यवहाररूप अर्थसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका प्रतिपादक वचन निश्चनय कहलाने योग्य है। इसी प्रकार निश्चयरूप अर्थसापेक्ष व्यवहाररूप धर्मका ज्ञापक ज्ञान व्यवहारनय और व्यवहारा अर्थसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका ज्ञापक ज्ञान निश्चयनय कहलाने योग्य है। पहिले दोनों वचननयके और दूसरे दोनों शाननयके भेद जानना चाहिए।' यह अपर पक्षद्वारा उपस्थित किये गये व्यवहारनय और निश्चयनवके लक्षण हैं। किन्तु इन लक्षणोंकी पुष्टिमें कोई आगमप्रमाण अपर पक्षने नहीं दिया है। इनका सांगोपांग विचार करते हए सर्वप्रथम हम आचार्योने व्यवहारपदका क्या अर्थ स्वीकार किया है इस बात पर दृष्टिपात करते हैं । पालापपरतिमें व्यवहारपदका अर्थ करते हुए लिखा है __ अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यन समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भुतव्यवहार एवोपचारः, उपचारा६ष्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः । गुणिगुणिनोः पर्याय पर्यायिणोः स्वमावस्वभाविनोः कारण-कारकिगाभेदः सद्र्व्यवहारस्थावः । द्रव्ये दृश्योपचारः पर्याये पर्यायोपचारः गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, पर्यायोपचारः गुणे योपचारः गुणे पार्योपचारः पर्याये इम्योपचार: पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽसद्भुतम्यवहारस्यार्थी द्रष्टव्यः । अर्थ-अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भतव्यवहार है। असदमृत व्यवहारका नाम हो उपचार है । उपचारके बाद भी उपचारको जो करता है वह उपचरिसासद्भुतम्यवहार है। गुण-गुणीका पर्याव-पर्यायीका, स्त्रमाव-स्वभाववान् का और कारक-कारकवान्का भेद सद्भूतव्यहारका अर्थ है। दम्य में द्रव्यका उपचार, पर्याय में पर्यायका उपचार, गुणमें गुणका उपचार, द्रव्यमें गुणका उपचार, द्रा पर्यायका उपचार, गुणमें द्रव्यका उपचार, गुणमें पर्यायका उपचार, पर्याय में द्रव्यका उपचार और पर्यायमें गुणका उपचार इस तरह नौ प्रकारका अस तव्यवहारका अर्थ जानना चाहिए। यह आलापपद्धतिका वचन है। इसमें असदभूतव्यवहाररूप अर्थ उपचरित असद्भूतव्यवहाररूप अर्थ और सद्भूतन्यवहाररूप अर्थ क्या है इसका स्पष्ट शब्दोंमें निर्देश किया गया है और साथ में यह भी बतला दिया गया है कि असद्भतव्यवहारका नाम ही उपचार है। यहाँ सतम्यवहाररूप असे प्रयोजन नहीं है। इसलिए सद्धतव्यवहाररूप अर्थको आगमत्रमाणके साथ स्पष्ट करते हैं घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो धृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीबजल्पनेऽपि न सन्मयः ॥४०॥ घीका घड़ा कहने पर भी घड़ा धीमय नहीं है, उसी प्रकार जीव वर्गादिमान् है ऐसा कहने पर भी जीव वर्णादिमान नहीं है। यहाँ घड़े में घी रखा है, अतएव घीका संयोग देखकर व्यबहारी जन उसे धोका घड़ा कहते हैं, यह असद्भुत व्यवहारका उदाहरण है। यदि कोई अशानो जीव इतने मापसे घड़े को मिट्टोका न समझकर उसे यथार्थरूपमें घोका ही समझने लगे तो उसकी ऐगी समझको मिथ्पा ही कहा जायेगा। घडे तो बहस प्रकारके होते है और उनमें नाना वस्तुएँ भरी रहती है। अतएव लोक में अन्य बस्तुओंसे भरे हुए घड़ोंका वारण करने के लिए विवक्षित वस्तुके आलंब नसे इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है। जो व्यवहार उपचरिस होनेपर भी सप्रयोजन होनेके कारण लोकमें ग्राह्य माना जाता है और लौकिक जनोंको परमार्थका ज्ञान करानेके लिए आगममें भी इसे स्वीकार किया गया है। स्पष्ट है कि यदि
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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