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________________ ४५८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है, मात्र लोकव्यवहार के लिए इन सबको स्वीकृति मिली हुई है। इमीका नाम उपचरित है । अपर पक्ष यदि इन सब तथ्योंपर दृष्टिपात करनेकी कृपा करे तो उसे विवाद करनेका पत्रसर ही न मिले । एक समय पर्यायका उषय होने पर दूसरी समय पर्यायका उत्पाद होता और दूसरी समय पर्यायके व्यय के बाद तीसरी समयपर्यायका उत्पाद होता है । प्रथम समयमें कालकी जो समयपर्याय होतो है वह दूसरे समयमैं नहीं रहती और दूसरे समय की तीसरे समयमें नहीं रहती। प्रत्येक समयकी ये समय पर्याय यथार्थ है। मात्र प्रत्येक समयका ज्ञान करानेफे लिए पंचास्तिकाय गाथा २५ की आचार्य अमृत चन्द्रकृत टीक में यह कहा गया है कि-'परमाणुनचलनायत समय:--परमाणुके गमनके आश्रित समय है सो इसका अर्थ यह नहीं कि वह परमाणु के गमनके आधीन होकर उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि एक परमाणको एक प्रदेश परसे दुसरे प्रदेश पर मन्दगतिसे जानेमें जितना काल लगता है, एक समयका उतना परिमाण है और इसी आधार पर इसे व्यवहारकाल कहा है। जो कालकी एक पर्याय होनेसे सद्भुतम्यवहाररूप ही है। किन्तु दो समयसे लेकर अन्य जितनी कालको गणना है वह काल द्रव्यमें वर्तमान अर्थात पर्यायहासे सद्भुत न होने पर भी लोको व्यवहार पदवोको प्राप्त है, इसलिए वह असद्भुतत्र्यवहार ही है। अपर पक्षने क्षायोपशमिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका प्रश्न उठाकर यह लिखा है कि 'वस्तुको समयवर्ती अखंड पर्यायको ग्रहण करने में सर्वथा असमर्थ ही रहा करते है। इन ज्ञानीका विषय वस्तुको फमसे कम अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्यायोंका समूह ही एक पर्यायके रूपमें होता है इस प्रकार इन जानों की अपेक्षा मिट्टी, पिण्ड, स्थास, कोश, कुदाल और घटमें उपायानोपादेय व्यवस्था असंगत नहीं मानी जा सकती है।' सो इस सम्बन्ध में यही निवेदन है कि यह जो अन्तर्मुहूर्तवती नाना पर्यायोंका समूह कहा गया है वह क्या एक समय में होता है या उत्पाद व्ययके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त लक नाना पर्याय होकर अन्तमें हम पर्यायोंका समूह ऐसा व्यवहार करते है, इसलिए यह व्यवहार तो असद्भुत ही है। हाँ, केवलज्ञान प्रत्यक वस्तुकी जो समयवर्ती एक-एक पर्यायको पृथक-पृथक् रूपसे जानता है सो कहाँ पर प्रत्येक पर्याय पर्यायार्षिक नयकी अपेक्षा निश्चयरूप होकर भी परम पारिणामिक भावको ग्रहण करनेवाले मिश्चयनमकी अपेक्षा सद्भुत व्यवहाररूप कही गई है। क्या इसे हमने कहीं अवास्तविक, उपचरित एवं कल्पनारोपित अतएव अवस्तुभत कहा है या लिखा है, जिससे कि यह आकाशकुसुम या स्वरविषाणके समान अवस्तु होकर केवलझानका विषय न बन सके। केवलज्ञान में जो जिस कालमें जिस रूप में अवस्थित है, रहे हैं, या रहेगे वे सब पदार्थ युगगत् झलकते हैं। बै यह अच्छी तरहसे जानते है कि इतने परमाणु अपने परिणमन द्वारा परणमते हुए स्ध पदवीको प्राप्त हुए हैं। केवलज्ञानकी महिमा क्षायोपशमिक शानोंकी अपेक्षा बहुत बड़ी है। यह आगमानुसारी हमारा मत है कि जिस प्रकार द्रव्य स्वयं सत् है, गुण भी स्वयं सत है उसी प्रकार प्रत्येक समय में होनेवाली पर्यायें भी स्वयं सत् है । यदि अपर पक्ष स्वयं इस बात का विचार करे कि हम किसको सद्भुत मानते हैं और किसको असद्भत तो उसकी ओरसे ऐसा आरोपात्मक कथन न होता । प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपनेमें, अपने लिये, अपने द्वारा, अपने बलसे अपनी पूर्व पर्यायसे निवृत्त होकर उत्तर पर्यायको जन्म देता है। मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी नीयोंको यदि प्रत्येक समयकी इन पर्यायोंका ज्ञान नहीं होता है तो इतने मासे उनका असद्भाव नहीं माना जा सकता । यदि उन्हें अन्तमहत अन्लमहतं बाद पर्यायोंकी विलक्षणताका ज्ञान होता है तो इतने मासे प्रत्येक अन्त महतके भीतर प्रत्येक समयकी पर्यायमें जो विलक्षणता आती है वह कार्यकारणपद्धतिसे आने के कारण वे उनके सद्भावको अस्वीकार नहीं कर सकते। किन्तु वे श्रुतके बलसे यही निर्णय करते हैं कि यह हमारे शानका दोष है कि हम प्रत्येक सययम होनेवाली पर्याय एवं उसके कारणकलागको नहीं जान पाते । प्रत्येक श्रुतज्ञानो जीव आगम और लोक
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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