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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५९ सम्मत पद्धतिसे यह जानकर कि किस उपादानसे कैसा बाह्य संयोग मिलने पर क्या कार्य होता है उसके उपक्रममे लगता अवश्य है । परन्तु उस कालमें उस उपादानभूत वस्तुसे वही कार्य होगा, यह नहीं कहा जा सकता। यहाँ उपादान शब्दका प्रयोग व्यवहार नयसे किया गया है। हमें दुख है कि अपर पक्ष स्वभावरूप और विभावरूप सभी पर्यायों की उत्पत्ति केवल निमित्तकारणोंसे माननेकी चेष्टा करता है। तभी तो उसकी ओरसे स्वभाव पर्यायरूग सम्यक्त्वकी उत्पत्ति निमित्त कारणोंस होतो हुई लिखी गई है । परन्तु चाहे स्वभावपर्याय हो या विभाषपर्याय उसकी उत्पत्ति स्वयं अपने से ही होती है, उसमें बाह्य सामग्री निमित्त हो यह दूसरी बात है । हम नहीं कहते कि केवली भगवानने देखा है गाव इसीलिए मिट्टीमें उससे विलक्षण पिण्ड पर्यायकी उत्पत्ति हुई हैं। वह तो मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ । उसमें स्वयं जो प्रत्येक समय में पर्याय होती है उसे भी वह जानता और देखता है और मन्त्र द्रव्यों में जो प्रत्येक समय में पर्यायें होती है उन्हें भी वह मात्र जानता और देखता है। जब यह अकाट्य नियम है कि मिट्टी कब किसको निमित्तकर गिण्डरूप पर्याय बनेगी, तब वह उसी समय अपनी सुनिश्चित बाह्य सामग्रीको निमित्तकर पिण्डरूप बनती है । यही आगमसम्मत पद्धति है । भारतवर्ष में अनेक लौकिक दर्शन प्रसिद्ध है। उनमें से कोई (बौद्ध) असत्से सतको उत्पत्ति मानते हैं, कोई ( ब्रह्मवादी ) एक सत्से मिथ्या जगतको उत्पत्ति मानते हैं, कोई ( न्याय-वैशेषिक ) सत्से उसमें असत् कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं, और कोई (सांख्य) सत्से सत् कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं। इस प्रकार एकान्तका आग्रह करनेवाले ये विविध मान्यतावाले दर्शन हैं । किन्तु इन सबने इस तथ्यको एक स्वरसे स्वीकार किया है कि अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पदार्थ उपादान या समवायी कारण कहलाता है। इसलिए प्रकृतमें जो तत्वार्थवार्तिकका 'यथा मृदः ' इत्यादि वचन अपर पक्षने उद्धृत किया है सो उसका वही आशय समझना चाहिए जो हमारा अभिप्राय है, क्योंकि स्वयं आचार्य अकलंकदेव इसी ग्रन्थके अध्याय १ सूत्र २ में सम्यग्दर्शनकी चर्चा करते हुए लिखते है- स्वपरनिमित उत्पादो दृष्टो यथा घटस्योत्पादो निमित्तो दण्डादिनिमित्तश्च तथा सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमिशः सम्यक्त्व पुद्गलनिमित्तश्च तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति ? सन्न, किं कारणं ? उपकरणमात्रस्वात् । उपकरणमार्ग बाह्यसाधनम् । स्त्र- परनिमित्तक उत्पाद देखा गया है, जैसे चटका उत्पाद मिट्टीनिमित्तक और दण्डादिनिमित्तक होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनका उत्पाद आत्मनिमित्तक और सम्यक्त्व पुद्गलनिमित्तक होता है। इस लिए उसमें भी मोक्षकारणता बन जाती है ? यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व पुद्गल उपकरणमात्र है। बाह्य साधन नियमसे उपकरणमात्र है । यह आवायंदचन है जो उसी आशयकी पुष्टि करता है जिसका निर्देश उन्होंने 'यथा मृदः इत्यादि वचनमें किया है। ११. उपादानका सुनिश्चित लक्षण यथार्थ है अब हम प्रतिशंका के उस अंधापर विचार करते हैं जिसमें अपर पक्षने उपादानके सुनिश्चित लक्षणको सदोष बतलाने के अभिप्रायसे प्रतिशंकाको मूर्तरूप दिया | अवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यका नाम उपादान है इस लक्षणका सभी आचार्योंने निर्देश किया है, किन्तु इस लक्षण के आधार से अभ्यवहित पूर्व-पूर्व पर्याय उपादानता बनती जानेसे अपर पक्ष उसे सदोष मानता है। उसका कहना है कि 'जो मिट्टी परमाणुओं से बनी है उन परमाणुओं में एकरूपता स्वीकार करने से आगमविरोध उपस्थित हो जायेगा ।' किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर भी आगमविरोध नहीं आता, क्योंकि बागममें प्रागभावका प्रागभाव इस प्रकार प्रागभाव ५.
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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