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________________ जयपुर ( सानिया ) तत्वचर्चा अनादि सान्त स्वीकार किया है । पूरा उद्धरण पहले ही दे आये है । अतएव उसे यहाँ नहीं दे रहे हैं 1 किन्तु अपर पक्षने उपादानको अपेक्षा इस प्रश्नको यहाँ उपस्थित किया है, इसलिए आवश्यक समझकर उसका आशयमात्र यहाँ दे रहे है। उसमें बतलाया है कि कार्य के पूर्व अनन्तर परिणामस्वरूप उपादानको ही प्रागभाष कहते हैं। ऐसा प्रश्न होनेपर कि अनन्तर गर्द परिणाम स्वरूप रमादानको गाभार मान लेने से उसके पूर्व कार्य के सद्भावका प्रसंग उपस्थित होता है। समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि प्रागभायका विनाश ही कार्य है। अतएव उसके पहिले कार्यका सद्भाव नहीं स्वीकार किया है । तो उसके पहले उस कार्य की अपेक्षा क्या स्थिति रहती है इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस प्रकार पूर्व-पूर्व परिणाम सन्ततिके अनादि होनेसे उसमें विवक्षित कार्यरूपताका अभाव ही है। अन्त में निष्कर्षको फलित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि इन सब प्रागभावोंकी सन्त तिमें से जब तक अन्तिम प्रागभावका अभाव नहीं हो जाता तबतक विवनित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि अन्तिम प्रागभाषका अभाव होने पर ही विवक्षित कार्य होता है। सम्भवतः कोई यह शंका करे कि ऐसा माननेपर प्रत्येक परमाणुको भूतादि चतुष्टयरूप कैसे स्वीकार किया गया है सो उस प्रश्नका समाधान यह है कि यह प्रागभाव सन्तति अन्नाद होने से बहुत बड़ी है, अतएव उसके मध्य में कभी किसी परमापाको जलस्वरूप बननका, कभी उसी परमाणुको वायरूप बननेका और कभी उसी परमाणुको अग्निरूप बननेका भी अवसर आना सम्भव है, इसकी कौन वारण कर सकता है। इससे न तो उसकी भागभाव सन्तति में ही बाघा आती है और न ही वर्तमान जो उसका पुथ्वीरूप दिखलाई देता है इसमें हो बाधा आती है। परमाणुकी क्रममे होनेवाली पर्यायों में वे सब अवस्थायें सम्भव हैं। अथवा वर्तमान कालके पूर्व उक्त चारों प्रकारकी अवस्थाओंमेसे किसो परमाणुको मात्र पृथ्वीरूप, किसी परमाणुकी मात्र पृथ्वी और जलरूप, किसी परमाणुकी मात्र पृथ्वी, जल और अग्निरूप सथा किसी परमाणुक्री पृथ्वी, जल, असि और वायुरूप अवस्था होना भी सम्भव है। कोई एक नियम नन्छौं । जिसकी जब जैसी उपादान योम्म ताऐं रही होगी सब सनका अतीत कासमें वैसा परिणमन हा होगा। जो पारणमन हुआ होगा वह नियसक्रमसे ही हुमा होगा । अल्पज्ञानी जी, अनादि कालसे लेकर अबतक किसका क्या परिणमन हुआ होगा इसे भले ही न जान सके, परन्तु इतनेमात्रसे उस परमाणके नियतक्रमसे होनेवाले परिणमनमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । प्रतएव अपर पक्षकी ओरसे पंचास्तिकाय गाथा ७८ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको आधार बनाकर जो उपादानके उक्त लक्षणको सदोष बतलाया गया है वह ठीक नहीं है। प्राचार्य महाराज अपनी उक्त टोका में परमाणु की परिणमनसम्बन्धी इस विचित्रताका निर्देश करते हए स्वयं लिखते हैं ततः पृथिव्यन्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एवं परमाणुः कारणं परिणामवशात् । विचित्री हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचित् गुणस्य व्यकाम्यतटवेन विचित्रां परेपतिमादनाति । इसलिए पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चार घातुओंका परिणामके कारण एक ही परमाणु कारण है, क्योंकि परमाणुका विचित्र परिणामगुण कहीं किसी गुणको व्यक्लाध्यक्तता द्वारा विचित्र परिणतिको - - It धारण करता है। यह वही आगम प्रमाण है जिसे अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में समझकर निर्दिष्ट किया है। किन्तु जैसा कि हम पूर्वमें बतला आये है उससे एक परमाणुके कालभेदसे पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमन
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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