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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६१करने पर भी उपादानके अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यरूप लक्षणके स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं उपस्थित होती । अपर पक्षकी ओर से यहाँपर अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादानकारणतारूप सामर्थ्यको लेकर जो यह पृच्छा की गई है कि 'उक्त पर्याय उक्त प्रकारको सामर्थ्य के उत्पन्न होनेका कारण क्या है' और फिर Bora पूर्ववतित्वरूप धर्म बतलाकर यह लिखा है कि 'यह तो कार्य सापेक्ष धर्म है, अतः जब तक कार्य निष्पक्ष नहीं हो जाता तब तक उस अव्यवहित पूर्व पर्याय में कार्यव्यवहित पूर्व क्षणवतित्वरूप धर्म हो नहीं सकता है, इसलिए यदि कहा जाय कि कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक अयोग्य योग्यता हो सामर्थ्य शब्दका वाक्य है तो फिर हमारा कहना है कि इस प्रकारकी सामर्थ्य तो निट्टोको कुशल, कोश, स्वाय Finger पर्यायों में तथा इनके भी पहलेको सामान्य मिट्टीरूप अवस्था में मी पायी जाती है, इसलिए घट कार्यके प्रति इन सबको उपादान कारण मानना असंगत नहीं है।' आदि । सो इस प्रश्नका समाधान यह है कि ऋजुसुमयको अपेक्षा मव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादानकारणतारूप स्वरूप स्वतःसिद्ध है। यह इसका कार्य है और यह इसका उपादान कारण है ऐसा व्यवहार मात्र परस्परसापेक्ष हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र अपनी आवमीमांसा में लिखते हैंधर्म-धम्यविनाभावः सिद्धचत्ययोग्यदीक्षषा । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत् कारकज्ञापकांगवत् ॥६५॥ धर्म और धर्मका अविनाभावपरस्पराशरूपसे सिद्ध होता है, स्वरूप नहीं, क्योंकि वह कारकांग और शायकांनके समान नियमसे स्वतः सिद्ध है ।।०५। इस प्रकार अव्यवहितपूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादान कारणतारूप स्वरूपके स्वतः सिद्ध हो जाने पर उससे पूर्व पूर्ववर्ती पर्यायोंमें वह कारणरूप धर्म आगम में किस रूप में स्वीकार किया गया है इसका विचार करना है। आगनमें इसका विचार करते हुए बताया है कि अभ्यवहत पूर्णक्षणवर्ती पर्याय युक्त द्रव्य मियय उपदानकारण है। समर्थ उपादान कारण इसीका दूसरा नाम है। तथा इससे पूर्व पूर्ववर्ती पर्यायुक्त द्रव्य व्यवहार उपादानकारण है। असमर्थ उपादान कारण इसका दूसरा नाम है। इसकी पुष्टि तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ ७१ के 'नादिसिद्धक्षणै:' इत्यादि वचनसे भली प्रकार हो जाती है। इसमें व्यवहार उपादानका स्वरूप बतलाते हुए उसे असमर्थ उपादान कारण कहा गया है और निश्चय उपादानका स्वरूप बतलाते हुए उसे समर्थ उपादान कारण कहा गया है | आचार्य महाराज इसी उल्लेख द्वारा इस बातको राष्ट्ररूपसे सूवन करते हैं कि जो समर्थ उपादान कारण होता है वह नियम अपने कार्यको जन्म देता है किन्तु जो असमर्थ उपादान कारण होता है उससे समर्थ उपादानम्य कार्यको उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव इस कथनसे यह सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकारको उपादानता अभ्यवहत पूर्व क्षणवर्ती पर्यायुक्त द्रव्यमें होती है उस प्रकार की उपादानता इसके पूर्व उसमें कभी भी सम्भव नहीं है। इसलिए सभी बचाने निश्चय उदान कारणका एक मात्र यही लक्षण स्वीकार किया है जो युक्तियुक्त है। १२. परमाणु योग्यता आदिका विचार इसी प्रसंग अपने दो या दो से अधिक परमाणुओंके संयोगसे बनी हुई स्कल्परूप पर्यायकी चर्चा करते हुए लिखा है कि वह स्कन्ध नाना द्रव्योंके परहार मिश्रणसे ही बना हुआ है। अतएव मिट्टी
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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