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________________ शंका १६ और उसका समाधान ७७५ बानमा चाहिए ।।१६१।। जिनवरने जानका प्रतिबन्धक अज्ञानको कहा है। उसके सदमसे जीव प्रज्ञानी है ऐसा जानना चाहिए ।।१६२॥ जिनबरने चारित्रका प्रतिबंधक कषायको कहा है। उसके उदवसे जीव अचारित्र है ऐसा जानना चाहिए ।।१६३।। रत्नत्रय परिणत आत्मा पूर्ण स्वतन्त्र है इसे अपर पक्ष स्वीकार करता ही है और उसके प्रतिबन्धक ये मिथ्यात्वादि भाव है, इसलिए ये स्वयं परतन्त्रस्वरूप होकर भो परतन्त्रताके मूल हेतु भी है ऐसा यहाँ वोकार करना चाहिए । परमें एकत्व बुद्धि करके या रागद्धि करके जब यह जीव मिथ्यात्व आदिमसे परिणमता है तभी ज्ञानावरणादि कर्मोंमें परतन्त्रताको ब्यवहारहेतुता बनती है, अन्यथा नहीं। हमने अपने पिछले वक्तब्धयहो आशय व्यक्त किया है, अत: वह आगमानुकूल होने से प्रमाण है। आचार्य जयसेनने प्रवचनसार गाथा ४५ को टोकामें इसी तथ्यको ध्यान में रखकर यह वचन लिखा है द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहन न परिणमप्ति तदा बन्धो न भवति । ठयमाह के मो उदय रहने पर यदि जीव शुद्धात्मभावनाके बलसे भावमोहरूपसे नहीं परिणमता है तो उस समय बन्ध नहीं होता। 'बन्ध नहीं होता' यह नयवचन है । इससे ज्ञात होता है कि शुद्धात्मभावनाके अभाव में जिस स्थितिअनुभागको लिा हुए या मात्र तन्निमित्तक जिन प्रकृत्तियों का बन्ध होता है उस प्रकारका या उन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। पूरे कथनका तात्पर्य यह है कि जीवको परतन्त्रताका यथार्थ कारण कषाय है, द्रव्यकर्म नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्दि तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० ६ सू० ४ में लिखते हैं कषायसुकं पुंसः पारतयं समससः । सरचाम्सरानपेक्षीह पनमध्यग गवत् ॥४॥ कषायचिनिवृत्तौ सुपारतन्त्र्यं निवत्यते | यह फस्यचिच्छान्तकषायावस्थितिक्षणे ।।५।। इस लोक में कमलके मध्यम अबस्थित भौंरके समान इस जीयकी परतत्रता सब औरसे पायहेतुक होती है । और किसी जीवकी इस लोकमें कषायके शान्त रहतं समय परतन्त्रता दूर हो जाती है उसी प्रकार करायके निवृत्त हो जाने पर इस जीवकी परतन्त्रता भी निवृत्त हो जाती है। यद्यपि इन्हीं आचार्यने आप्तपरीक्षा कारिका ११४-११५ की टीका तथा पृष्ट २४६ में द्रव्यकर्मको जीवको परन्त्रताका हेतु बतलाया है और यहाँ वे ही आचार्य करायको परतन्त्रता का हेतु लिख रहे हैं । परन्तु इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जीवकी परतन्त्रताका यथार्थ हेतु कषाय है और उपचरित हेतु द्रव्यकर्म है । इसलिए हमने अपने पिछले उत्तरमें इस विषयको ध्यान में रख कर जिन तथ्योंका प्ररूपण किया है वे यथायं हैं ऐसा यहा निर्णय करना चाहिए। १. समप्र आईतप्रवचन प्रमाण है अपर पक्षने हमारे 'समयसार अध्यात्मकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगम ग्रन्थ है, शेष ग्रन्थ व्यवहारनयकी मुख्यतासे लिखे गये हैं। इस कथनको तूल देकर इस वीतराग चर्चाको जो विकृतरूप प्रदान करनेका प्रयत्न किया है वह श्लाघ्य नहीं है। हमने सक्त वाक्य किस प्रन्यमै किस नयकी मुरूपसाले कथन है इस दृष्टिको ध्यानमें रख कर ही लिखा है और यह अभिप्राय हमारी नहीं है, जगन्मान्य गुरुपदसमलंकृत नपक्षाह
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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