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________________ जयपुर (खानिया , तत्त्वचर्चा आचार्य अमृतचन्द्रका है यह स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १३२ का टोकावचन भी प्रमाणरूपमें दे दिया है 18मारे उक्त कयन के आधारसे ये तथ्य फलित होते है १. समयमारमै मुख्यरूपसे निश्चयनयको लक्ष्यमें रख कर कथन किया गया है, गोणरूपसे व्यवहारनयको लक्ष्यमें रख कर भी कथन किया गया है । २. 'समयसार' यह वचन उपलक्षण है। इससे इसी प्रकार के अन्य आगमनन्थों का भी परिग्रह हो जाता है, ३. शेष ग्रन्थों में व्यवहार नयको लक्ष्यमें रख कर मुख्यरूपसे कथन किया गया है, गोणरूपसे निश्चयनयको लक्ष्यमें रख कर भी कथन किया गया है। ४. 'शेष अन्य यह वचन उपलक्षण है। इससे उन्हीं थांका परिग्रह होता है जिनमें ध्यबहारमयको लक्ष्य में रख कर की गई कथनोकी मुख्यता है । अपर पक्षने हमारे उक्त कथनके आधारसे विचित्र अभिप्राय फलित किया है और पर्यायान्तररूपसे आचार्य अमृसचन्द्रको भो उसमें सम्मिलित कर लिया है । यह आचार्य अमृतचन्द्रका ही तो वचन है इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितस्वात् .... ..परभाव परस्य विदधाति । यहाँ व्यवहारमय पर्वापानित होनेसे........परभावको परका कहता है-समयसार गा० ५६ यह आचार्य वचन ही तो हैअन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यन्न समारोपणमसम॒तम्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एव उपचारः । भन्य द्रव्य में प्रसिद्ध धर्मका अन्य द्रव्यमें समारोप करना असद्भूतव्यवहार है। असद्भूतव्यवहार ही उपचार है।-आलापपक्षति और यह आचार्य वचन हो तो हैअण्णेसि अण्णगुण मणइ असबभूद....॥२२३॥-नयनकादिसंग्रह असद्भूत व्यवहार अन्यके गुणको अन्यका कहता है। ये हमारे वचन नहीं है । ऐसी अवस्थामै अपर पक्ष का यह लिस्वना-कि उपरोक्त वाक्य स्पष्टतया इस प्रकार के अन्तरंग अभिप्रायको छातित करता है कि समस्त जनवाङ्मय (शास्त्रों) में एकमात्र समयसार ही अध्यात्मग्रन्य होने के कारण सत्यार्थ, प्रामाणिक तथा मान्य है और अन्य समस्त ग्रन्थ (चाहे वह स्वयं श्री कुमकुन्द आचार्य कृत भी क्यों न हों) अवदारनयको मुख्यतासे होने के कारण असत्य, अप्रामाणिक एवं अमान्य है, क्योंकि आपके द्वारा व्यबहारनयको कल्पनारोपित उपचरित या असत्य हो घोषित किया गया है । अरना इस वाक्यको लिखने की आवश्यकता ही न थी। श्री समयसारमें भी स्थान-स्थान पर व्यवहारका कथन है, अत: बह भो असत्य ही होंगे, इस अपेक्षारी तो यह भी लिखा जाना चाहिये था कि श्री समयसारके तो मात्र वही अंश माह्य है जिनमें केवल निश्चयनयसे कथन है 1 यह ही तो एकान्त निश्चय मिथ्यावाद है। आदि, किन्तु यह शब्दावलि किसी भी अवस्थामै शोभनीक नहीं कहीं जा सको। यह हुँझलाहट ही है, जिसे अपर पक्षने उक्त शब्दों में व्यक्त किया है । यह अपर पत्तके वक्तव्यका कुछ अंश है। इसमें या इससे आगेके वमतव्यमें बहुत कुछ कहा गया है । यदि हम उसके बहत भीतर जायें तो उसके उत्तरमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है और यह सप्रमाण
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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