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जयपुर (वानिया ) तरचर्चा
है कि इस परतन्त्रताका कोई आभ्यन्तर (निश्चय हेतु) अवश्य होना चाहिए, क्योंकि परतन्त्रतारूप कार्यको उत्पत्ति केवल बाह्य हेतुसे होतो हो यह तो अपर पक्षको भो मान्य नहीं होगा। आचार्य विद्यानन्दितत्त्वार्थ पलोकवात्तिक पृ० ६५ में लिखते है
दण्ड-कपाट-प्रतर-लोकपूरणक्रियानुमयोऽपकर्षण-परप्रकृतिसंक्रमण हेतुर्वा भगवतः स्वपरिणामविशेषः शक्तिविशेषः सोऽन्तरंगः सहकारी निःश्रेयसोस्पती रत्नत्रयस्य, सदभावे नामावातिकमअयस्य निर्जरानुपप सेनिःश्रेयसानुत्पत्तेः । आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्जरा न पुनरुपक्रमात् , तस्यानपवत्यत्वात् । तदपेनं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनप्रथमसमये मुक्ति न सम्पादयस्येव, सदा तत्सहकारिणोऽसच्यात् ।
जिसका दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रियासे अनुमान होता है और जो अपकर्षण तथा परप्रकृति संक्रमणका हेतु है ऐसा भगवान का शक्तिविशेषरूप जो अपना परिणामविशेष है बह रत्नत्रयका निगमको उत्ति में अन्तरंग सहकारी कारण है, क्योंकि उसके अमावमें नामादि तीन अघाति कोकी न तो निर्जरा बन सकती है और न हो निःश्रेयसकी उत्पत्ति हो सकती है। आयु कर्म को तो यथाकाल अनमनसे ही निर्जरा हो जाता है, उपक्रमसे नहीं, क्योंकि वह मनपवयं है। उसको अपेनासे युक्त क्षायिक रत्नत्रय सभोग केवलो के प्रथम समय में मुक्ति को नहीं हो सम्पादित करता है, क्योंकि उस समय उसके सहकारी (अन्तरंग हेतु) का असत्व है ।
इससे स्पष्ट है कि चौदहवेमणस्थान तक जो यह जीव परतन्त्र बना हया है उसका अन्तरंग कारण स्वये इस जोबको शक्तिहीनता ही है। आचार्य विद्यानन्दिने सर्वत्र कर्मको परतत्यताका हेतु बतलाते हुए उसका निमित्तरूपसे इसीलिए उल्लेख किया है ताकि कोई जोवको परतन्त्रताका मुख्य कर्ता व्यकर्मोदयको न मान ले। उन्होंने द्रव्य कर्मों को परतन्त्रताका निमित्त बतलाते हुए उसको पुष्टिम बेड़ो ( निगड) को दृष्टान्तरूपमें उपस्थित किया है । बेड़ो किसी को स्वयं परतन्त्र नहीं बनातो। यह उसका स्वभाव नहों 1 किन्तु जब उसे अपने अपराधवश धारण किया जाता है तब वह परतन्त्रता में बाह्य निमित्त होती है, अन्यथा नहीं। इससे स्पष्ट है कि जोकको परसन्नताका मलहेतु मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारिवही है। इन्हें संसार (परतावता) के मूल हेतु कहने का भी यही कारण है। कर्म शब्द द्रव्य कमके लिए तो प्रयुक्त होता ही है, भावकमके लिए मुख्यतासे प्रयुक्त होता है, क्योंकि यथार्थ में द्रव्य कमको करना जीवका अपना कार्य न होकर भावकमको करना जीवका अपना कार्य है। अतएव वस्तुतः ये मिथ्यात्वादिभाव ही सम्यक्त्वादिके प्रतिबन्धक स्त्रीकार किये गये हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए भगवान् कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते है
सम्मतपदिणिवद्धं मित्तं जिणवरहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो मिरछादिहित्ति णायवी ॥१६॥ माणस्स पचिणिबद्धं अण्णाणं जिपवरहिं परिकहियं । तस्सोदपेण जीवो भग्णाणी होदि णायचो ॥१६२।। चारित्तपखिणिबद्ध कसायं जिणधरहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायत्रो ।।१३३॥ जिनदेवने सम्यक्त्वका प्रतिबन्धक मिथ्यात्वको कहा है। उसके उदयसे जोत्र मिथ्यादृष्टि है ऐसा