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________________ मंगल भगवान् वीरो मंगलं गौतम गणी मंगलं कुन्दकुन्दायें जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ९ सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है वो किससे बंधा हुआ है मूल एइन ९ और किसीसे बँधा हुआ हानसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह षद्ध है तो उसके बन्धन से छूटने का उपाय क्या है ? - प्रतिशंका ३ का समाधान १ उपसंहार अपने प्रथम उत्तरमें हो हमने यह स्पष्ट कर दिया था कि संमारी जीव मढ निश्चयनयकी अपेक्षा बढ है और वह रागादि विकारी भयोंसेबद्ध है, व्यवहारको अपेक्षा उसमें वह होने का आवहार है और इस अपेक्षासे वह शनावरणादि कर्मोसे वद्ध है। शुद्ध निश्चयसे वह गदा है इसलिए इनसे बद्ध नहीं है । परतन्त्रताका विचार भी इसी प्रकार कर लेना चाहिए । बन्धन से छूटने के उपायका निर्देश करते हुए बतलाया था कि अपने परम निश्चय परमात्मस्वरूप आत्माका अवलम्बन लेनेसे तन्मय परिणमन द्वारा वह मुक्त होता है। साथ ही यह भी बता दिया गया था कि उसके अन्तरंग में निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जितनी जिवमी विशुद्धि प्राप्त होती जाती है उसके अनुपात में इसके द्रव्य-भाव कर्मका मी अभाव होता जाता है । इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'जोनका राग-द्वेषादि भावोंके साथ व्याप्यध्यापक सम्बन्ध है, ध्य बन्धक सम्बन्ध नहीं । इसलिए जीव ज्ञानावरणादि क्रमोंसे बद्ध और परतन्त्र है। मोहनीय आदि द्रव्यकर्म राग-द्वेषादि विकारी भावोंके प्रेरक निमित्त कारण है तथा आत्माके राग-द्वेष आदि विकृत भाष मोहनीय आदि द्रव्य कर्मदम्बके प्रेरक निमिल कारण है। जब आत्मा के प्रबल पुरयार्थये मोहनीय आदि का cou* क्षय होता है तब विकारका निमित्त कारण जानेसे राग-द्वेष आदि नैमित्तिक विकार भाव दूर हो जायें हैं। उस दायें आत्माको पता भी दूर हो जाती है।' जाड अपने दूसरे उत्तर में हमने अपने प्रथम उत्तरका तो समर्थन किया हो है, साथ ही पिछली शंका में जिन विशेष बातोंकी चरचा की गई है उन पर भी विचार किया है। इसमें प्रेरक कारणका आशय क्या है इस पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है । २. प्रतिशंका ३ का समाधान प्रतियांका उपस्थित करते हुए अपर पक्षने मूल प्रश्नको चार खण्डों में विभाजित कर दिया है। इनमे से (अ) खण्डका जो उत्तर हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तर में दिया है वह नयविभागको दिखलाते दिया गया था। ( आ ) खण्डका उत्तर भी उससे हो जाता हुए 1 ( आ ) इस खण्ड पर प्रकाश डालते हुए अपर पक्षका कहना है कि रागादिक तो कर्मोदय जनित व्यत्रहारनयले आमाके विकारी भाव है जो बन्धके कारण होनेसे भाव कहे जाते है व्यापक तो है क्योंकि विकार पर्याय है किन्तु स्वर्याके साथ हो सकता ।' उनसे जीवका कथंचित सम्बन्ध कदापि नहीं
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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