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________________ शंका ९ और उसका समाधान ५७२ समाधान यह है कि द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकर आत्मामें जो विकारी भाष रागादि उत्पन्न होते है ये अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके ही है । अध्यात्ममें शुद्ध निश्चयनमकी मुख्यता है । इसलिए उन्हें नहीं व्यवहारनयले जीवका कहा गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गापा ५७ की टीकामें लिखते है-- ननु वर्णादयो बहिरंगास्तत्र व्यवहारेण क्षीर-नीरवल्पंइलेषसम्बन्धी भवतु नाचाभ्यन्तराणा रागादीनाम्, तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति ? नैवम्, द्रव्यकमबन्धापेक्षया योऽसौ असवृत्तव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनाथं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः । शंका---वादिक बहिरंग है। वहाँ व्यवहारसे क्षोर-नोरके समान संश्लेयसम्बन्ध होश्रो, अभ्यन्तर रागाविकका यह सम्बन्ध नहीं बनता, वहाँ अशुद्ध निद वय होना चाहिए ? समाधान-ऐता नहीं, क्योंकि द्वन्यकर्मबन्धकी अपेक्षा जो असमत व्यवहार है उसको अपेक्षा तारसम्यका जान कराने के लिए रागादिको अशुद्ध निवनय कहा जाता है। वास्तव में तो शुद्ध निश्चयको अपेक्षा अशुद्ध निश्चय भो व्यवहार हो है, यह उक्त कथनका भावार्य है। इससे साष्ट ज्ञात होता है कि रागादि जोदके है इस कवनको जो व्यवहार कहा गया है वह शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा प्रशुद्ध निश्चय भी व्यवहार है इस तस्यको ध्यान में रख कर हो कहा गया है । अपर पक्षने जीव और रागादिक में पाय-व्यापकभाव तो स्वीकार किया ही है, इसलिए वे अशुद्धनिश्चयरो जीवके हो है ऐसा स्वीकार करने में भी आर पक्षको आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अपर पक्षका कहना है कि वे रागादि भान) 'बन्धके कारण होनेसे भावबन्ध कहे जाते है । समाघान यह है कि ये मात्र बन्धके कारण होनेसे भावबन्ध नहीं कहे गये है, किन्तु वस्तुतः जीव उनके साथ एकत्व (तादात्म्प) हा परिणाम रहा है, इसलिए यथार्थ में जीवके साथ बद्ध होनेसे आगममें उन्हें भाववन्धरूप कहा गया है । घबला पु० १४ पृ० २ में बन्धका लक्षण करते हुए लिखा है दब्यरस इन्वेण इन्च-मावाणं वा जो संजोगी समवाओ वा सो बंधी णाम । द्रव्यका द्रवपके माथ तथा द्रव्य और भावका क्रममे जो संयोग और ममवाय है वह बन्ध कहलाता है। इससे सिद्ध है कि रामादि भाव व्यकर्मबन्धके कारण होनेमायसे भावबन्ध नहीं कहलाते, किन्तु एक तो वं जीवके भाव है और दूसरे जीय उनसे बद्ध है, इसलिए उन्हें भावबन्ध कहते हैं। अपर पक्ष इसके लिए धवला पु० १४ पर दृष्टिपात करले, सब स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। __ अपर पक्षका कहना है कि 'स्वपर्यायके साथ बन्ध्य-बन्धक सम्बन्ध कदापि नहीं हो सकता।' समाधान यह है कि आगममें बन्धके तीन भेद बतलाये है-पद्गलबन्ध, जावबन्ध और तदुभयबन्ध । इनका स्वरूप निर्देश हम प्रथम उत्तरमें कर आये हैं । इनमेसे पुद्गलबन्ध और तदुभवबन्ध ये दोनों बाध असद्भुत व्यवहारनयसे कहे गये है । तथा जीवबन्ध अशुख निश्चयनयका विपर है। प्रवचनसार गा० १८९ की टीकामें आचार्य जयसेन लिखते है किंघ रागादीनेवात्मा करोति तानेच भुक्तं चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्वयनयो हव्यकर्मबन्धप्रतिपादकासद्वतन्यवहारनयापेक्षया शुद्ध व्यनिरूपणात्मको विवक्षितनिश्चयस्सथैषाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते 1 व्यकर्माण्यात्मा करोति मुंक्त स्यशुमद्रव्यनिरूपणात्मकारङ्गतम्यवहारनयो भण्यते ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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