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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
रागादिको ही आत्मा करता है और उन्हीं को भोगता है यह निश्चयनयका लक्षण है । किन्तु यह विनय द्रव्यकर्मबन्धके प्रतिपादक अद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा शुद्ध द्रव्य अर्थात् स्वाश्रित निरूपण स्वरूप विवक्षित निश्चयन्त्य उसीप्रकार अशुद्ध निश्चयनच कहा जाता है । व्यकमको आत्मा करता है और भोगता है इस प्रकार अशुद्धद्रव्य अर्थात् पराश्रित निरूपणस्वरूप असद्द्भूत व्यवहारनय कहा जाता है ।
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स्पष्ट है कि जैसे जीव और कर्ममें कर्ता-कर्मभाव तथा भोषता-भोग्य भाव अमद्भुत व्यवहारनयका विषय है वैसे ही इन दोनों में बन्ध्यबन्धकभाव यह भी असद्भूतव्यवहारनयका विषय है । असद्द्भूत व्यव हारका लक्षण हैं-भेद होने पर भी अभेदका उपचार करना ।
प्रवचनसार गा० १८८ की आचार्य जयसेनकृत टीका में कहा भी हैभेदऽप्यभेदोपचार लक्षणेना सतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते ।
इस प्रकार जवत अगम प्रमाथी के प्रकाश में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दो द्रव्यों में बन्ध्यबन्ध सम्बन्ध यथार्थ तो नहीं है। किन्तु अद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा दो द्रव्योंमें परस्पर अत्यन्त भेद होने पर भी अभेदका उमार करके वह कहा जाता है । इसो तथ्यको वे प्रववनसार गाथा ९६ की टीका में स्पष्ट करते हुए लिखते है-
था व लाभादि कषायितं रक्षितं समीप्यादिरयेण रक्षितं सदभेदेन रकमित्युच्यते तथा स्वस्थानीय आत्मा ठोश्रादिद्रव्यस्थानीय मोहरागद्वेषैः कषायितो रक्षितः परिणती मीठस्थानीय कर्मपुद्गलैः संश्लिष्टः सन् भेदेऽप्यभेदोपचारलक्षणेनासद्भूतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते ।
जैसे वस्त्र लांघ्रादि द्रव्यों कषायित-रंजित होकर मजीठा आदि रंग द्वन्यसे रंगा जाकर अभेदसे रक्त ऐसा कहलाता है उसी प्रकार वस्त्रस्थानीय आत्मा लीनादि द्रव्यस्थानीय मोह, राग, द्वेषसे मोह राग परिणत होता हुआ मजीदास्थानीय कर्मपुद्गलोंसे संश्लिष्ट होकर भेदमे भो अभेदका उपचार करके अद्भुत आहारनयसे बन्ध ऐसा कहा जाता है ।
इससे यह स्पष्ट है कि आत्मा वर्म पुद्गलोसे बद्ध है यह कथन असद्भूतव्यवहारनयका ववतथ्य होने से उपचरित ही है । अस्तविक वन्य बन्ध्यकसम्बन्ध कोई दूसरा होना चाहिए, अतः आगे उसीका विचार करते है१. भावबन्ध स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय गाथा १४७ की टीका में लिखते हैं
तद मोहरागद्वेषस्निग्धः शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भाववन्धः ।
इसलिए यहाँ पर मोह, राग, द्वेषसे स्निग्ध हुआ शुभ और अशुभ परिणाम जीवका भावबन्ध है ।
२. समयसार गाथा ७४ की टीका में आचार्य जयसेन लिखते है
एते कोधायास्रवाः जीवेन सह निवद्वा सम्बद्धा औपाधिकाः ।
ये क्रोधादि आसव जीवके साथ निबद्ध अर्थात् सम्बद्ध है जो अधिक है ।
आचार्य कुन्दकुन्द उक्त गाथामे 'जीवणिबद्धा एट' पदका प्रयोग किया है।
३. जीवका नगादिके साथ बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाथा १७७ में लिखा हैजीवरस रागमादीहिं
जीवका रागादिकके साथ बन्ध है ।