________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा याका अर्थ-व्यवहार अभूतार्थ है, सत्य स्वरूपको न निरूप है। बहुरि शुद्धनय जो निश्चय है सी भूतार्थ है। जैसा वस्तुका स्वरूप है तसा निरूप है / इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः लिखते है जिनमा वर्षे कहीं सौ निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है। लाकों तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है ऐसा जानना / बहुरि कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याप्यान है। ताक्रौं 'एस है नाही, मिमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। एसा जानना। 'इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनिकै न्याख्यानौं समान सत्यार्थ जानि' “ऐसे भी है, ऐसे भी है' ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तन करि सो दोऊ नयमिक क्षण माना गया है तभी। इस प्रकार समाधानका तीसरा दौर समाप्त होकर प्रस्तुत तत्वचर्चा समाप्त हुई। . . .यालय दि