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शंका १७ और उसका समाधान खुलासा यह है कि प्रत्येक वस्तुमें उपचरित धर्मको स्वतन्त्र सत्ता नहीं हुआ करनो, किन्तु अन्य जिस वस्तुसम्बन्धी द्रव्य, गुण और पर्यायका प्रयोजनादिवश तद्भिन्न वस्तुमें द्रव्य, गुण या पर्याय जिस रूपसे उपचार किया जाता है वह द्रव्य, गुण या पर्याय जिसका उपचार किया गया है उस नामसे कहा जाता है । इसी दृष्टिको ध्यानमें ग्खकर आलापपद्धति में असद्भुत ध्यवहार का अर्थ (विषय) नो प्रकारका बतलाया गया है। और इसी आधारपर वस्तुमें असद्धृतध्यवहाररो उपचारसस्वभावकी भी स्थापना की गई है-असद्भुप्त व्यवहारेणीचरितस्वभावः।-पालापप० ।
अन्य वस्तुको या उसके धर्मको अन्यके कार्यका निमित्त कहना उपचरित इसलिए है कि इसमें अन्यके कार्यकी अपेक्षा मुख्य निमित्त (उपादान) और मुख्य प्रजोजनका सर्वथा अभाव है, किन्तु निदरयका ज्ञान करानके लिए ब्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन दिखलाना आवश्यक है, इसलिए 'मुख्याभावे सति' इत्यादि वधा के अनुसार वहां पलारी बुनियादी है।
का कहना है कि इस प्रकार उपचारके आधार पर वस्तुको हो उपचरित कहा जाता है।' किन्तु सर्वथा ऐसी बात नहीं है, क्योंकि कहीं पर पूरी वस्तुको, कहों पर गुणको और कहीं पर पर्यायको इस प्रकार तीनोंको उपचरित कहा जाता है।
अपर पक्षने यहाँ पर जिस उपवार ज्ञाननय और उपचार वचननयका निर्देश किया है उसीकी दूसरी संज्ञा असदभूतव्यवहारनय है।।
इस प्रकार हमने अपने प्रथमादि उत्तरों में उपचारका जो लक्षण और अनेक उदाहरण निर्दिष्ट किये है वे आगमानुसार ही निर्दिष्ट किये हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
अपर पक्षसे निवेदन जयपुर (खानिया में तत्त्वच का जो उपक्रम क्रिया गया था वह इस जत्तरके साथ अन्तिमरूपसे सम्पन्न हो रहा है। इस समत्र प्ररूपणा द्वारा वस्तु व्यवस्था में और कार्य-कारणभावमें निश्चय और व्यवहारको जिनागम किस रूपमें स्वीकार करता है यही दिखलाना हमारा मुख्य प्रयोजन रहा है। हमारा अयोपशम मन्द है और जीवन में प्रमादकी बहुलता है, किन्तु जिनागम द्वादशांग वाणीका सार होनेसे गहन और नयप्ररूपणाबद्सल है। इसलिए उक्त कारणोंसे पूरी सावधानी रखते हुए भी हमसे यदि कहीं चूक हुई हो तो अपर पक्ष हमारे क्षयोपशमको मन्दता और प्रभावको बहुलताकी ओर विशेष ध्यान न देकर उसे सम्हालकर ही यथार्थको स्वीकार करेगा यह निवेदन है।
विद्वान् श्रुतघर होते है । अतएव उन्हें श्रुतके आशयको उसीरूपमें प्ररूपित करना चाहिए जो द्वादशांग वाणीका सार है। वर्तमानकालीन विद्वानों के सामने आचार्य परम्परा तो आदर्शरूपमें है ही, श्रुतधर पण्डितप्रवर राजमलजी, बनारमोदासजी, टोडरमलजी, दौलतरामजी, मागचन्द्रजी, द्यानतराम जी, भूधरदासजी जयचन्दजी आदि विद्वानोंकी परम्परा भी आदर्शरूपमें है। अतएव उसे ध्यान में रखकर वर्तमानकालीन विद्वान अपने कर्तव्यका निर्वाह करेंगे ऐसी आशा है।
जिनामममें निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंमेंसे कहीं निरन्नयनयकी मुख्यतासे और कहीं व्यवहारनय। मस्यतासे प्ररूपणा हुई है। उसका आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण पण्डितप्रवर टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक अ०७ में 'ववहारो भूयरधोऽभूयत्यो देसिदो दु सुद्धणओं' इस आगम वचनको उद्धृत कर किया है। वे लिखते है