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________________ 2 ८४४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा होगा और ऐमो अवस्थामें यह बाह्य सामग्री की कर्ता हो जायगी जो जिनागमके समय है। स्पष्ट है कि बाह्य सामग्रीमें जैसे निमित्त व्यवहार उपचरित है वैसे हो उसे निमित्त कर जो कार्य हुआ है उसमें नैमित्तिक व्यबहारको उपचरित मान लेना ही श्रेयस्कर है । इस विवेधनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार उपचारित ही है। 'मुख्षाभावे सति प्रयोजने निमिते उपचारः प्रवर्तते यह वचन इसके लिए लिखा गया है। इसका विशेष स्पष्टोकरण पूर्वमें किया ही है । अतएव उपादान के समान निमित्त व्यवहारको वास्तविक नहीं माना जा सकता। निमित व्यवहारको कल्पनापित तो अपर पक्ष दो कहता है हमारी ऐसी मान्यता नहीं है, क्योंकि जितना भी उपचरित कथन किया जाता है वह एकके धर्मको दूसरेका स्वीकार करके ही किया जाता है, निराधार नहीं किया जाता। यदि अपर पक्ष उपचाररूप लोकव्यवहारको कल्पना शेषित घोषित करनेमें ही अपनी इतिकर्तव्यता मानता रहेगा तो उसके शेर है घोका घड़ा ले माओ' आदि रूप समस्त व्यवहार कल्पनारोपित सिद्ध हो जायगा । किन्तु लोकमें ऐसा व्यवहार होता है और वह दष्टार्थका ज्ञान कराने में भी समर्थ है, अतएव निमित्तनैमित्तिक व्यवहारको उपचरित मान लेने अपर पक्षको आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह अपर पक्षका कहना है कि 'समसार गाथा १३,१४ को आत्माति टीकामे वहारको अपने रूप में भूतार्थ हो स्वीकार किया है ' सो यहाँ वहो तो ज्ञात है कि व्यवहारका वह अपना रूप कौनम्रा है जिस आधार पर उक्त टोकामे उसे भूतार्थ स्वीकार किया है। यहाँ पर मौन क्यों है ? अपर पक्षका कहना है कि जिस प्रकार निमित्तमें विद्यमान निमित्तता निमितता ही है वह उपादानारूप नहीं हो सकती है, इसलिए उपादानतारून न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए मो निमित्तसारूपसे वह वास्तविक हो है, उसी प्रकार व्यवहार-व्यवहार ही है वह निश्चय कभी नहीं हो सकता है, इसलिए निश्चय न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए भी व्यवहाररूपसे वह वास्तविक ही है। सो प्रकृत में जानना तो यह है कि जिस प्रकार उपादानता वस्तुका वास्तविक धर्म है, इसलिए स्वयं वस्तु ही है इस प्रकार निमित्तता क्या वस्तुका वास्तविक धर्म है ? यदि वह वास्तविक हूं तो क्या एक वस्तुका गुणश्रमं दूसरी वस्तु सद्भूत हो सकता है? यदि नहीं तो उसे उपचारित मान लेने में अपर पो बात नहीं होनी चाहिए। निमित्तता अपने रूप में है यह कहना अग्य बात है और उसे वस्तुरूप मानना अन्य बात है। इसी वायसे व्यवहार के विषय में भी समझ लेना चाहिए। समारगाथा १३,१४ को आत्मरूपावि ढोकामै अपनी-अपनी पर्यायकी अपेक्षा सद्भूत व्यवहारको भूतार्थ कहा है, असद्भूत व्यवहारको नहीं । अपर पक्षने अन्तमें प्रस्तुत प्रतिशंकाका उपहार करते हुए लिखा है कि 'यह बात हम पहले हो ये है कि एक वस्तु वा वस्तुके धर्मका आरोप अन्य उस वस्तु यही होता है जहाँ उपचारका उल्लिखित लक्षण घटित होता है। इस प्रकार उपचारके आधार पर वस्तुको ही उपचरित कहा जाता है । और इस तरह वस्तुके दो धर्म हो जाते हैं एक उपचरित धर्म और दूसरा अनुपचारित धर्म । इनमें से जो शान उपचरितधर्मको ग्रहण करता है वह उपचारित ज्ञाननय कहलाता है और जो ज्ञान अनुचरितधर्मको ग्रहण करता है वह अनुपचरित ज्ञाननव कहलाता है। इसी प्रकार जो वचन उपचरित धर्मका प्रतिपादन करता है वह उपचरित वचनय कहलाता है और जो वचन अनुपचारित धर्मका प्रतिपादन करता है वह अनुपचारित वचननय कहलाता हूँ ।'
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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