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शंका १७ और उसका समाधान
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जैसी अन्तत अनुभूत होती है वैयो अन्यदि उनको कुम्हारके साथ अनुभूत नहीं होती इसका कारण यह नहीं है कि मिट्टी पटके प्रति वास्तविक (स) कारण है और कुम्हार सिर्फ कल्पनारोपित (असदुप कारण है। आदि।
समाधान यह है कि मिट्टी में घटकी कारणता वास्तविक है और कुम्हारमें योग और freest कारणता वास्तविक है। परन्तु कुम्हारके योग और विकल्पको पटके साथ असाधारण द्रव्यप्रत्यासति तथा प्रतिविशिष्ट भावप्रस्थासत्ति नहीं है। इस अपेक्षा से कुम्हार में घटक कारणता असद्रूप ही है। यदि इस रूप में उसे सदूप मान लिया जाय तो कुम्हार और मिट्टी एक हो जायेंगे। यही कारण है कि आवाने कालप्रत्यासत्तिय कुम्हारको पहा ( उपचरित) हेतु कहा है। अपर पक्ष हो स्वयं ऐसी कारणताको सर्वथा कल्पनारोपित (सद्रूप) लिखता है, अन्यथा यह उपचार के लिए इन शब्दों का प्रयोग न करता। यह उस पक्षी अपनी सूख है। हमारे कथनका आश्रय नहीं मिट्टी और घटने अभेद होनेसे उपादानोपादेयभावके आधारपर जैसी अन्तति बन जाती है देसी अन्तर्याप्त कुम्हार और पटमें निमित्तनैमित्तिकमात्र आधारपर नहीं बनी इसलिए कुम्हारको घटका निमित्त कहना और घटको कुम्हारका नैमित्तिक कहना यह उपचरित हो मिद्ध होता है । इसका आशय यह है कि कुम्हार घटका वास्तव निमित नहीं है और न पट कुम्हारका वास्तव में नैमित्तिक ही है। यह मात्र व्यवहार है । जो उपचारित होने से अद्भूत हो है। कुम्हारके विवक्षित योग और विकल्पसे यह सूचना aat मिलती है कि मिट्टीने घट बनाया। परन्तु उससे यह सूचना मिलती है, इसलिए कुम्हार और घटमें वास्तविक कर्ता कर्मभाव घटित नहीं होता ।
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यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि निमित्त कारणको कहते हैं और नैमिसिक कार्यका दूसरा नाम है। यही कारण है कि अनेक स्थलोंपर उपादानके लिए भी निर्मित शब्दका प्रयोग हुआ है। इसलिए अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्यके कार्यको अपेक्षा जो निमित्त व्यवहार किया जाता है वह उपचरित हो सिद्ध होता है ।
आगम में स्व-परप्रत्यय परिणमनको स्वीकार किया है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु उसी आगममें परको कारण उपचारसे माना गया है। इसे वह पक्ष क्यों स्वीकार नहीं करता । आगम तो दोनों है । एकको स्वीकार करना और दूसरेको अस्वीकार करना यह न्यायमार्ग नहीं कहा जा सकता। यदि अगर पक्ष एक उपके कार्यका कारण धर्म दूसरे द्रामें वास्तविक सिद्ध कर दे तब तो बाह्य सामग्री निमितता वास्तविक मानी जाय, अन्यथा उसे उपचारित मानना होगा।
अपर पक्षका कहना है कि 'निमित्त कार्यरूप परित्र नहीं होता, सिर्फ उपादान ही कार्यपरिणत होता है।' समाधान यह है कि जब कि अपर १ बाह्य व्याप्ति बाधार पर बाह्य सामग्रीको वास्तविक निमित्त मानना है तो उसे भी कार्यरूपसे परिषत होना चाहिये। अतः वह कार्यरूप परिणत नहीं होता, इसलिए उसे उपचरित मानना ही रांगत है ।
अपर पक्ष अपनी मान्यता के आधार पर यह भले हो समाधान करने कि निमित्त स्वर निमित कारणत्व आदिको वास्तविक माननेसे निमित्तोंमें द्विक्रियाकारिताको प्रसवित नहीं होगी। किन्तु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि जिस बाह्य सामग्रीको अपर पक्ष अन्य कार्यका वास्तविक निमित्त कहता है वह अपने कार्यका उपादान भी है, इसलिए जैसे उपादान होकर की गई उस (बाह्य मामद्रो) की क्रिया वास्तविक है उसी प्रकार अन्य कार्यके प्रति निमित्त होकर की गई उस वस्तुकी दूसरी क्रियाको भो वास्तविक मानना