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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा बतलाया था। परम पारिणामिक भावको ग्रहण करनेवाले शुद्ध निश्चयनयका निर्देश करते हुए अपर पक्षको ओरसे भी यद्यपि पुण्य-पाप आदि भेद कयनको व्यवहारनवकी प्ररूपणा स्वर्व स्वीकार किया गया है, फिर भी हमारी ओरसे पापभाव छोड़ना पड़ता है यह कमन व्यवहारमयको प्ररूपणा है ऐसा लिम्बनेपर हमपर अकारण रोष प्रगट किया गया है जो शोभनीक प्रतीत नहीं होता।
'गृहस्थ भी अणुनतादि पुण्यभावका त्यागकर महामतरूप पुण्यभात्रको प्राप्त होता है' यह कथन हमारो ओरसे पर्यायदृष्टि से लिखा गया था, क्योंकि प्रत्येक पर्यायका यह स्वभाव है कि उसका व्यय होकर उत्तर पर्यायका उत्पाद होता है। फिर भी प्रतिशंका ३ में इसका इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर खंडन किया गया जो स्वयं प्रतिशंका पक्षको ही कमजोर बनाता है। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता है कि जो संयमारांयमी संयमभावको अन्तरंग में स्वीकार करता है वह आंशिक संयम्भावको निवृत्तिपूर्वक पूर्ण संयमभावको अन्तरंगमें स्वीकार करता है अर्थात् इसके पूर्व जो उसके बाह्याभ्यन्तर आंशिक संयमरूप प्रवृत्ति होती थी उसके स्थान में पूर्ण रायमरूप प्रवृत्ति होने लगती है। संतानकी अपेक्षा आंशिक संयमभाव पूर्ण संयमभाव अन्तनिहित है यह दूसरी बात है। अतएव जो कथन जिस अभिप्रायस जह! किया गया हो उसे समझकर ही वस्तुका निर्णय करना चाहिये । शास्त्रके रहस्यको हृदयंगम करने की यही परिपाटी है।
आगे प्रतिशंका ३ में संयमासंयमवरण और संयमाचरण क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए जो यह लिखा है कि 'इन दोनों संयमाचरणोंसे पंचमादि गुणस्थानोंमें प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जरा होली है जिसे करणानुयोगके अभ्यासी भलीभाँनि जानते हैं।' मो इस विषयमें यही निवेदन करना है कि जिस प्रकार करणानुयोगके अभ्याली यह जानते हैं कि इन दोनों संयमाचरणों में गुणवेणि निर्जरा होती है उसी प्रकार वं यह भी जानते है कि स्वभावके लक्ष्यसे यहाँ प्राप्त हुई जिस आत्मविशुद्धिके कारण ये दोनों संयमाचरण पंचमादि गुणस्थान संज्ञाको प्राप्त होते हैं, एकमात्र वही आत्मविशुद्धि, गुणश्रेणिनिर्जराका प्रधान हेतु है अन्य शुभोपयोग या अशुभोपयोग नहीं।
____ इस प्रकार पूर्वोक्त कथनसे यह निविवाद सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार आत्माके शुद्ध स्वभावरूपसे परिणत होनेपर पुण्यमाव स्वयं छूट जाता है उसी प्रकार आत्माके पुण्यरूपसे परिणत होनेपर पापभाव भी स्वयं छूट जाता है।