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________________ ६९४ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्नका उत्तर देते हुए जो कुछ लिखा गया है उसके आधारसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ से विदित होता है कि यह तो मान दिलाना है कि पर: किए होती है वैसे-से पुण्य स्वयं छुटता जाता है। मात्र प्रतिशंका २ पापको प्राधार बनाकर उपस्थित को गई है। उसमें बतलाया गया है कि पापका छोड़ना पड़ता है, जब कि विशुद्धिका वोग पाकर पुण्य स्वयं छूट जाता है। समाधान यह है कि चाहे पुण्यभाव हो या पापभाव दानाक छुटनको प्रक्रिया एक प्रकारको ही है । उदाहरणार्थ एक ऐसा गृहस्थ लीजिए जो मुनि वनको अगीकार करता है । विचार करने पर विदिन होता है कि जब वह मुनिधर्म को अंगीकार करता है तब व्यवहारसे वह भी अणुशतादिरूप पुण्यभावका त्याग कर ही महानतादिरूप पुण्यभावको प्राप्त होता है, इसलिए यह कहना कि पापका त्याग करना पड़ता है और विशुद्धिका योग पाकर पुण्य स्वयं छूट जाता है ठोक प्रतोत नहीं होता। पर यह सव कथन आगममें व्यवहानियको अपेक्षा किया गया है। वस्तुतः विचार करनेपर पुण्यभावका योग पाकर पापभाष स्वर्य छूट जाता है और विशुद्ध का योग पार पुण्यभाव स्वयं टूट जाता है। पापभाव, पुण्यभाव और गुद्धभाव ये तीनों मात्माकै परिणाम है । अतः उत्पाद-व्ययके नियमानुसार जब एक भावको प्राप्ति होती है तो उससे पूर्वके भाव का स्वयं व्यय हो जाता है। प्रतिशंकामें जितने प्रमाण दिये गये हैं उन सबका व्यवहारनयकी मुख्षतामे ही वन उन शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है। परमार्थसे विचार करने पर पाप, पुण्प या शुद्धरूप उत्तर पर्याय के प्राप्त होनेपर पूर्वको पर्यायका पप होकर हो उसकी प्राप्ति होती है। तृतीय दौर शंका १४ मूल प्रश्न यह है-पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँच कर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर स्वतः छूट जाता है या उसे छुड़ाने के लिये किसी उपदेश या प्रयत्नकी जरूरत है? प्रतिशंका ३ आपने इसके प्रथम उत्तरमें यह तो स्वीकार कर लिया था कि 'द स्वभाषा परिणतिके काल में पुण्य स्वयं छूट जाता है', किन्तु प्रसंगसे बाहर यह भो लिच दिया कि पाप भी स्वयं छूट जाता है । यद्यपि पापके सम्बन्ध में प्रश्न नहीं था तथापि अपनी मान्यता के कारण आपने पापको स्वयं छुट जानेवाला लिख दिया तथा इसके लिये किसी आर्ष ग्रन्धका प्रमाण भी नहीं दिया।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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