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________________ द्वितीय दौर शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आस्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होनेपर स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ानेके लिए किसी उपदेश और प्रयत्नकी जरूरत होती है ? प्रतिशंका २ आपने अपने उत्तरमें लिखा है-'किन्तु जिस क्रमसे उमको आत्मविशुद्धि बढ़ती जाती है उस क्रमसे यथास्थान प्रात्मविशुद्धिका योग पाकर पापके समान पुण्य भी स्वयं छूटता जाता है। इसके लिए जो गाथा ७४ समयसारको टीकाका प्रमाण दिया है वह आपके इप कायनको पुष्ट नहीं करता है । यह उत्तर हमारे प्रश्नसे सम्बन्धित नहीं है, क्योंकि हमारा प्रश्न पुण्यको चरम सीमाके अथवा आत्माक शुद्ध स्वभावरूप परिणत अस्पा विषयमें था और पुण्यके छूटन के विषयमें था। फिर भी आपने अप्रासंगिक 'पापके स्वयं छूटने का उल्लेख किया है। आपका यह कपन आगमविरुव है ।। हिंसा, असत्य आदि सब पापोंकी बुद्धिपूर्वक प्रतिज्ञास्य त्याग किया जाता है जैसा कि धवल पुस्तक १पृ० ३६६ पर कहा है सर्वसावग्रयोगात् विरतोऽस्मीति सकलसावद्ययोगविरतिः सामयिकशुद्धिसंयमो दम्यार्थिकत्वात् । अर्थ-में सर्वप्रकारसे सावध योगसे विरत है' इस प्रकार द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा सफल साबध योगके त्यागको सामायिकशुद्धिसंयम कहते हैं। इसो कपनको पुष्टि श्री कुंदकुंद भगवान्के प्रवचनसार गाथा २०८-२०९ में साधुके २६ मूलगुणोंका वर्णन करते हुए तथा श्री अमृतचन्द्र जी सूरिके इन वाक्योंसे होती है--- सर्वसानयोगप्रत्याख्यानलक्षणेकमहायतब्यक्तवशेन हिमानूनस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरस्यात्मकं पंचत्रतं प्रसं। अर्थ-सर्व सावधयोगके त्यागस्वरूप एक महाव्रतके विशेष होनेसे हिंसा, असत्य, चोरी, ( अब्रह्म) और परिग्रहकी विरत्तिस्वरूप पंच महानत है । इन आगमप्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि हिमादि पापोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है। किन्तु पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुंचकर अथवा आत्माके शुद्धस्वभावरूप परिणत होनेपर छट जाता है, अतः स्वयं छुटनेको अपेक्षा पुण्य और पापको रामान बताना उचित नहीं है। जितने भी जीव आजतक मोक्ष गये है, जा रहे है और जानेंगे वे सर्व पागका चिपूर्वक त्याग करके हो मोम गये हैं, जा रहे हैं और जावेंगे । शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होनेपर स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ाने के लिए किसी उपदेश और प्रयत्नकी जरूरत होती है ?
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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