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प्रथम दौर
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शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणन होनेपर स्वतः छूट जाता है. या उसको छुड़ाने के लिये किसी उपदेश और प्रयत्नको जरूरत होती है ?
समाधान १ आत्मा के शुद्ध स्वभावरूप परिणसिके कालमें निर्विकल्प अवस्था होती है। ऐसे समयमै उसके बाह्म उपदेशादिका योग बन ही नहीं सकता। साथ ही उसका उस अवस्थामे प्रति समयका पुरुषार्थ स्वहस स्थिति के अनुरूप ही होता है। इस कारण उस अवस्था, उसे पुण्यको घड़ाने के लिए न तो किसी उपदेशकी आवश्यकता पड़ती है और न ही किसी स्वतन्त्र प्रयत्नकी भी। किन्तु जिस क्रमसे उसकी प्रात्मविशुद्धि बढ़ती जाती है उस क्रमसे यथास्थान आत्मविशद्धिका योग पाकर पापके समान पुण्य भी स्वयं छूटता जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्यवयं अमृतचन्द्र समयसार गाथा ७४ की टीकामें कहते है
सहजविज़म्ममाणचिकितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथा आत्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथा आत्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानधनस्वभावो भवतीति । तावत् विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत् सम्यगासवेभ्यो निवसते, तावदानवेभ्यश्च निवतने यावत् सम्यग्विज्ञानघनस्वभाषो भवतीति ज्ञानानपनिवृत्योः समकालरवम् ।
सहजरूपप्ते विकाशको प्राप्त चित्तशक्तिसे ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है त्यों-त्यों आत्रयोंसे निवृस होता जाता है (यह कथन निश्चयपक्षको मुख्यतासे किया गया है ) और ज्यों-स्यों आत्रयोंसे निवृत्त होता जाता है त्यों-त्यों विज्ञानस्वभाव होता आता है (यह कथन ब्यवहारमयकी मुख्यतासे किया गया है तथा इन्हों दोनों नयोंकी अपेक्षा यह भी लिखा गया है कि-) उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना सम्यक प्रकारसे आस्रबास निवृत्त होता है और सतना आस्तवोंसे निवृत्त होता है जितना सम्यकप्रकारसे विज्ञानघनस्वभाव होता है। इस प्रकार ज्ञानको और बारबों को नियुक्तिको समकालपना है।
इस प्रकरणसे यहाँ इतना समझ लेना चाहिये कि निश्चय और व्यवहार में दो पक्ष है । तदनुसार प्रत्येक स्यानपर इनका उस उस स्थानके योग्य सुमेल होता है। यहाँपर इनकी समकालता इमी आधारसे बतलाई गई है। विविक्षित उपादान और विवक्षित निमित्तकी अपेक्षा कार्य-कारण परम्परामें भी इसी प्रकार प्रत्येक समयमें दोनोंकी समकालता है।