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शंका १३ और उसका समाधान
६९१ भावना करता है इसका निर्देश करते हुए जो यह लिखा है कि वह विचार करता है कि मैं अशुभोपयोग शुभोपयोगसे रहित होकर समस्त परद्रव्योंमें मध्यस्थ होता हुआ ज्ञानस्वरूप आत्माको ध्याता हूँ। गाथा इस प्रकार है
असुहोवोगरहिदी सहावजुत्तो ण अपाणदवियन्हि ।
होज मज्झस्थोऽहं णापगम पगं झाए ।।६।। यह सम्यग्दृष्टि होको तो भावना है। श्रुन, गुरूपदेश और युक्ति के बलस मिथ्पादष्टि भी गरव्यभावोंसे भित्र आत्माका निर्णय कर जब उक्त प्रकारकी भावना करता हुआ आत्मस-मुख होकर जाम लोन होता है तभी तो वह मम्पदृष्टि बनता है। सम्यग्दृष्टि बनने या सम्पदृष्टि बनकर आगे बढ़ाने का इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग नहीं है।
समयसार गाथा १४६ में चार प्रकारसे शुभाशुभमात्र जोपपरिणाम होकर भी अज्ञानमय भात्र होनेमे दोनों एक हैं, इसलिए कारण अभेदने दोनों को एक कर्म बतलाया गया है। दूसरे शुभाशुभ जो द्रव्यकर्म है वे दोनों केवल पुद्गलमय होनेसे एक हैं. इसलिए स्वभावके अभेदसे उन दोनोंकाक कर्म कहा गया है। तीसरे इनके योगसे जो शुभाशुभ फल मिलता है वह भी केवल पुद्गलमय होनसे एक है. इसलिए अनुभव अभेदसे दोनोंको एक कहा गया है। चौथे शुभ-मोक्षमागं केवल जो वमय होनरी और अशुभ-बन्धमार्ग केवल पुद्गलमय होनसे उन्हें अनेक बतला कर भी दोगोंके ही पुदगलमय बन्धमार्गके आश्रित होने में आश्रयक अभेदसे दोनोंको एक कर्म कहा गया है।
इसमे स्पष्ट है कि समयसार गाथा १४५ द्वारा शुभाशुभ द्रव्यकों के समान शुभाशुभरूप दोनों प्रकारके भावकमौका भी निषेध किया गया है और गाथा १४७ में इन दोनोंको स्वाधीनताका विनाश करनेवाला कहा गया है । शुभभाव भी अशुभभाबके समान औदयिकभाव तथा उममें उपयुक्त आस्माका परिणाम है और 'ओदइया अन्धयरा' इस सिद्धान्तके अनुसार वह बन्धका हो कारण है, अलः ज्ञानी की अशुभभावके समान शुभभावमें भो हेय बुद्धि ही होती है ऐसा यहाँ समझना चाहिए, क्योकि पुरुषार्थकी हीनताबमा शुभभाव
और तदनुसार व्यापार हामा अन्य बात है, किन्तु इसमें हेयबुद्धि का होना अन्य बात। ज्ञानोके शभभाव अवश्य होता है और तदनुसार मन, वचन, कायका पागार भी होता है इसमें आपत्ति नहीं। किन्तु ऐसा होते हुए भी उसकी उसमें हेपबुद्धि बनी रहती है तो ही वह मार्गस्थ है-जान, वैराम सम्पन्न है यह्न उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार प्रस्तुत प्रतिशंकाका मर्दाङ्ग समाधान किया।