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जयपुर (खानिया) त्वच
होती है शादि मतः मिध्यात्व पर्यायका व्यय कर जीव हो सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, अतः आत्मस्वभाव के सन्मुख हुआ आत्मा ही उसका साधकतम करण और निश्चय कर्ता है यह सिद्ध होता है।
८०६०४२७ का कथं जिम्बिणं इत्यादि वचनद्वारा अतिवृतिकरण के प्रथम समय में स्थित जोवपरिणामका निर्देश किया गया है। उसको जिनबिम्बका देखना कहा गया है, क्योंकि बहोपर मध्यस्थादि कर्मके निवसि-निकाचित्र वग्धका बिन्द होता है। अतएव इस वचनका कर्मशास् अनुसार अर्थ करना ही उचित है। व्यवहारका वक्तव्य इसोको कहते हैं भावपाड़ गाथा १५३ तथा पदिति १४-२ का भी यही आशय है कि जो स्वभाव सम्मुख हो आत्माको प्राप्त करता है उसकी जिनदेवादिमें प्रगाह भक्ति नियमसे होती है।
९. अपर पक्षने जा यह लिखा है कि जो मियादृष्टि परवार्थको न जानते हुए मात्र विषयसामग्री तथा सांसारिक सुखको प्राप्ति लक्ष्यसे अप्रशस्त रागमहित कुछ शुभ क्रिया करता है और उनसे जो होता है, वह पुष्पभाव तथा पुण्य संसारका ही कारण है आद
पुण्यवग्य
यो इस सम्बन्ध इनमा हो कहना है कि अप्रवराग हो और शुभ क्रिया तथा शुभह नहीं हो सकता । यह परस्पर विरुद्ध कथन है। प्रशस्त रागका ही शुभक्रिया तथा शुभभाव के साथ अन्वयव्यतिरेक है, अप्रशस्त रागका नहीं। इसी प्रकार शुभक्रियाका शुभभाव के साथ ही अन्वयव्यतिरेक हैं, अन्यके साथ नहीं।
आग निदान उल्लेख अवश्य है, पर उसका यह अर्थ नहीं कि पूयक्ति आदिरूप परिव्याम शुभ निदान है। उसके फलस्वरूप पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी कामना करना निदान अवश्य है यहाँ तो केवल प्रश्न इतना ही है कि ओ शुभ मन, वचन, कायका व्यापार होता है उसने आप ही सही बन्ध होता है या नहीं ? इस विषय में समस्त परमागमका एकमात्र यही अभिप्राय है कि उससे नरकादि दुर्गति हेतुभूत पापकर्मका अन्न होकर सिके कारण पुण्यकर्मका बन्ध होता है। यह जीव सम्यष्टि है, इसलिए इस अपेक्षासे उसे परम्परा सुविसका हेतु कहना अन्य बात है। इसका आशय तो इतना ही है कि रत्नत्रयपरिणत उपत ata मोक्षका पात्र होता है, इसलिए उसके महचर शुभगाव में भी मोक्षहेतुताका व्यवहार किया जाता है ।
१०. अवर पक्षका यह लिखना भी ठीक नहीं कि 'प्रसार प्रथम अध्याय आदि प्रयोग मात्र पार्थको नको मी पूर्णतया हेय बनलाया गया है क्योंकि जिसके पुण्यमात्र उपादेय बुद्धि है वह सम्यग्दृष्टिका लक्षण नहीं है और न उसे परमार्थ का जानने वाला ही कहा जा सकता है। कारण कि जिसको पुष्यमात्रमें उपादेय वृद्ध है उसकी उसके फल उदय बुद्धि न हो यह नहीं हो सकता का द्वारा पकड़े गये आत्मनिन्दा तर चीरके समान हो वह बाह्य क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। अन्तरंग में तो वह इन क्रियाओंको करते हुए भी एकमात्र अनन्त सुखके निधान निज परमात्मतत्त्वको ही आश्रय करनेयोग्य मानता है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिमें यही अन्तर है । इसी दृष्टिसारगाथा ११ को टीका 'अतः द्रोपयोग उपादेयः शुभोपयोगो यः प्रतोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेव है यह वचन कहा गया है। यह प्रवचनसार प्रथम अध्यायका ही वचन है 1 इसमें सम्यग्दृष्टि शुभोपयोगको या परमार्थको न जाननेवाले मिध्यादृष्टिके भोपयोगको मात्र हेर बतलाकर शुभमको लाया गया है। इस प्रकार प्रवचनकार अ० २ गा० १५६ में सम्बदृष्टि कैसी और