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शंका १३ और उसका समाधान
६८९ भिखना कहाँतक आगमानुकूल है इसका वह स्वयं विचार करे। इस विषयमें बहु वक्तव्य होते हुए भी हम और कुछ नहीं लिखना चाहते।
५. अपर पलने 'तीन लोकका अधिपतित्व' को अपनी व्याख्या द्वारा स्वयं उपचरिम घोषित कर दिया । फिर भी हमने उसे 'उपचरित कथन' लिख दिया तो अपर पक्ष हमारे इस कथनको आगमका विवर्याम बतलाने लगा इसका हमें आश्चर्य है । इस सम्बन्धम हमने पिछले उत्तरम क्या लिखा है उसे पुनः उद्धृत कर देते है-'बारह गुणस्थानमें सर्वमोहके क्षीण हो जानेपर जो चौतरागभाव होला है घर अरहंत पद ( केवलो पद) का निश्चयनयसे हेतु है। उस समय जो आम प्रकृतियोंका कार्य है उसमें इसका उपचार होनसे उस पुण्यको भी अरहन्त पदका कारण ( उपचारसे ) भागममें कहा गया है।'
हमारा उक्त कथन अपने में स्पष्ट है। इसमें न तो कहीं स्व-स्वामिसम्बन्धको चरचा है और न ही निष्परिग्रह शब्दका ही प्रयोग किया गया है। हम तो इस परसे इतना हो समझे है कि कुछ टीका करनी चाहिम, इसलिए अपर पक्षने यह टीका की है।
६. अपर पा लिखा है कि यदि निशानामा परमार्थको अपेक्षा व्यवहारधर्मका पालन करता है तो उसके लिए बह सम्यक्त्वको प्राप्तिका कारण होता है ।' आदि ।
समाधान यह है कि प्रकृतमें उक्त वाक्यमें आगे हा परमार्थको अक्षा' इस पदका क्या अर्थ है यह विचारणीय है । इस वाक्यका अर्थ 'व्यवहारवर्मको परमार्थ मानकर' वह तो हो नहीं सकता, क्योकि आगममें निश्चयधमके साथ जो शुभाचार परिणाम होता है, उसे व्यवहारधर्म कहा गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि अपर पक्षने उक्त वाक्यका प्रयोग 'परमार्थको लक्ष्यमें रखकर' इस अर्थमें किया होगा । यदि यह अर्थ अपर पक्षको इष्ट है तो अपर पक्षके उक्त कपनका यह आशय फलत होता है कि जो सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके सन्मुख होता है उसके बाहमें परमागमका श्रवण, जीवादि नो पदार्थोंका भूतार्थकपसे विचार, वीतराम देवादिकी उपासना-भक्ति आदि पुण्य किया नियमसे होती है। उसके अशुभाचरण नहीं होता, क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही शुद्धनयके विषयभूत आत्माके अवलम्बनसे तत्स्वरूप परिणमन द्वाग स्वानुभूति लक्षणवाले सम्यवत्व को प्राप्त होता है । स्पष्ट है कि यहाँपर सम्यक्व प्राप्तिका निश्चय कारण तां दादनयके विषयभूत ज्ञायकस्वभाव आत्माका अवलम्बन हांकर उपयोगका तत्स्वरूप परिणमन ही है, वाह्य विकल्परूप पुण्यभाव नहीं। फिर भी बाह्य में इस जीवकी ऐसी भूमिका होती है, इसलिये शुभाचार या पुण्यभावको उसका व्यवहार हेतु कहा जाता है।
श्री पवला पु. ६१० ४२ में तथा सर्वार्थसिद्धि १-७ में इमी आशयसे सम्यक्त्वक बाह्य साधनोंका निर्देश किया है। सम्बत्व प्राप्तिके समय यथासम्भव बाह्य परिकर ऐसा ही होता है इसमें सन्देह नहीं । मुख्यता तो उसकी है जो सम्यक्त्व प्राप्तिका यथार्थ कारण है 1 बह न हो और बाह्य परिकर हो सो सम्बस्व प्राप्त नहीं होता। इसलिए उसको प्राप्तिका वही निश्चय हेतु है यह अपर पक्षके उक्त कथन से ही सिद्ध हो जाता है।
७. 'सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्याष्टिको होती है' इसका तो हमने निषेष किया नहीं। पर मिध्यादृष्टि रहते हुए नहीं होतो, मिथ्यात्व पर्यायका व्यय होकर ही सम्यक्त्वको उत्पत्ति होती है ऐमा उसका अर्थ समझना चाहिये । तथा भेदविवक्षा, सम्यक्त्रो भो सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है यह लिखा या कहा जाय तो भी कोई हानि नहीं, क्योंकि द्वितीयादि समयों में जो सम्यक्त्व पर्याय उत्पन्न होती है वह सम्यवस्वीके ही
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