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________________ जयपुर ( स्वानिया ) सस्वचर्चा आगे अपर पक्षने हमारे कायनको स्वीकार करते हुए अन्त में जो यह लिखा है कि 'किन्तु हम आपके समान ऐसा भी नहीं मानते कि कार्य निमित्तको अपेक्षा रहित केवल विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त पशक्ति मात्र ही उत्पर थे जाया करता है तथा ऐसा भी नहीं मानते कि सहकारी कारणकी सापेक्षताका अर्थ केवल इतना ही होता है कि सहकारी कारणको उपस्थिति वहां पर नियमसे रहा करती है, उसका वहाँ कभी अभाव नहीं होता। हम तो ऐसा मानते हैं कि एक तो उस पर्यायशक्तिकी उत्पत्ति सहकारी कारणोंके सहयोगसे हो होती है, दुसरे पूर्व पर्यायशक्ति विशिष्ट व्यक्ति मिमित्तोंका वास्तविक सहयोग मिलने पर ही उत्तर पर्याबरू कार्यको उत्पन्न करती है और फिर उस उत्तर पर्यापशक्तिपिदिशष्ट द्रन्यशक्ति भी यदि निमित्तों का अनुकूल सहयोग मिल जाये तो उस उत्तर पर्यायसे भो उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर देती है तथा यदि अनुकूल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त नहीं होता तो वर्तमान पर्यायशक्तिसे विशिष्ट द्रव्यशक्ति उस पर्यायसे उत्तर क्षणवर्ती विवक्षित पर्यायको उत्पन्न करने में सर्वदा ही असमर्थ रहेगी। फिर तो उससे उसी कार्यको उत्पत्ति होगो जिसके अनुकूल उस समय निमित्त उपस्थित होंगे।' आदि । वह अपर पक्षका कार्यकारणभावके विषय में वक्तव्य है। बोद्धदर्शन विधिको सिद्धि स्वभावहेतु और कार्यहेतु इन दोको ही स्वीकार करता है, कारणहेतुको गमक नहीं मानता। उसका कहना है कि फारणका कार्य के साथ अधिनाभाव न होने के कारण वह उसकी सिद्धिका हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि जितने भी कारण होस है वे नियमसे कार्यवाले होते हो है ऐसा कोई नियम नहीं है। जिसको सामथ्र्य अप्रतिबद्ध है ऐसा कारण तो कार्यका नियमसे गमक होगा ऐसा कहना भो ठीक नहीं, क्योंकि सामर्थ्य अतीन्द्रिय होता है, इसलिए उससे किस कार्यको जन्म मिलेगा इसका ज्ञान करना अशक्य है। यह बौद्धदर्शनका बक्तब्ध है। इसीके उत्सरस्वरूप आचार्य माणिक्यनन्दिने अपने परीक्षामुख अ० ३ में 'रसादेकसामम्यनुमानेन' इत्यादि ५६ संखपाक सूत्र लिपिबद्ध कर यह कहा है कि ऐमा कारगरूप हेतु अपने कार्यका गमक होता ही है जो अप्रतिबद्ध सामर्थ्याला हो तथा कारणान्तरीको विकलवासे रहित हो। इसको टीका करते हुए लघु अनन्तवीर्य लिखते हैं न झनुकूलमात्रमन्यक्षमप्राप्तं वा कारणं लिङ्गमिष्यते येन मणिमन्त्रादिना सामर्थप्रतिबन्धाकारणातरचकल्येन वा कार्यव्यभिचारिण्यं स्यात, द्वितीयक्षणे कार्य प्रत्यक्षीकरण मानमानानर्थक्यं वा कार्याविना'भावितया निश्विास्य विशिष्ठकारणस्य छन्त्रावलिंगनांगीकरणात् । यत्र सामाप्रतिबन्धःकारणान्तरावैकल्यं निश्चीयते तस्यैव लिंगल्यं नान्यस्येति नोकदोषः । हम अनुकूलमात्र (लक्षणवाले) कारणको या अन्त्यक्षगान (लक्षणवाले) कारणको लिंग अर्थात साध्य. को सिद्धि हेतु नहीं करते जिससे कि मण-मन्त्रादिक के द्वारा सामथ्र्यका प्रतिबन्ध होनेसे अथवा कारणातरीको विकलता होनेसे यह (विवक्षित) हेतु कार्य (विवक्षित कार्य) के साथ व्यभिचारीपनको प्राप्त हो अथवा द्वियीय क्षण कार्यके प्रत्यक्ष करनेसे अनुमानको व्यर्थता हो, क्योंकि हमने कार्यके साथ अबिनाभावरूपसे निश्चित विशिष्ट कारणरूप छत्राधिकको लिंगरूपसे ( अनुमानज्ञानमें हेतुरूपसे) स्वीकार किया है। जिसमें सामर्थ्यका अप्रतिबन्ध और कारणान्तरोंका अवकल्प निर्णीत होता है उसके लिंगपना (अनुमानज्ञानमें हेतुपना) है, अन्यके नहीं, इसलिए प्रकृ तमें उक्त दोषका प्रसंग नहीं प्राप्त होता। लोकमें और आगममें प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोके साथ अनुमानज्ञान भो प्रमाणरूपसे स्वीकार किया गया है। इसमें जिस बस्तुका ज्ञान किया जाता है वह परोक्ष होता है और जिसको हेतु बना कर शान किया जाता है वह वस्तु इन्द्रियप्रत्यक्ष होती है। ऐसी स्थितिम यदि हमें इस मिट्टोसे अगले समय में क्या कार्य होगा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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