SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६५ लिए उपादानभूत वस्तु के संग्रहकी तरह निमित्तभूत वस्तुका भी लोक में संग्रह किया जाता है।' किन्तु अपर पक्षका यह लिखना कल्पनामात्र है, क्योंकि कुम्हार सदा कुम्हार नहीं बना रहता, इसी प्रकार दण्डादिक वस्तुऐं भी सदा ही उस पर्यायरूपसे नहीं रहती हैं। उपादान- उपादेयभाव एक द्रव्यमें स्वीकार किया गया है, इसलिए उसमें द्रव्यामि नयसे पहले भी उपादानता शक्तिरूपमें स्वीकार की गई है, किन्तु यह स्थिति बाह्य सामग्री नहीं है। यही कारण है कि तत्वार्थवार्तिक अध्याय १ सूत्र ३३ में जब कुम्हार शिविका आदि पर्यायोंके होने में निमित्त हो रहा है तब उसे कुम्हार कहनेका निषेध करते हुए लिखा है कुम्भकाराभावः शिचिकादिपर्यायकरणे तदभिधानाभावात । कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्य एव निर्वृतः । कुम्भकारका अभाव हैं, क्योंकि शिविका आदि पर्यायोंके करते समय उसे कुम्हार शब्द नहीं कहा जा सकता | और कुम्भपर्याय के समय में अपने अवयवोंसे ही वह ( कुंभ ) निर्वृस हुआ है। इरासे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी वस्तुमें अन्य द्रव्यके कार्य करने निमित्त कारणता नामका धर्म नित्य शक्तिरूपसे नहीं पाया जाता। यह केवल व्यवहारमात्र हैं। यदि अपर पक्ष घटनिर्माणके पहले भी कुम्हार शब्दका प्रयोग करना चाहता है तो भले करे, हम भी ऐसा प्रयोग करते हैं। परन्तु वह लोकपरिपाटीमात्र है। जयधवला पुस्तक ७ पृष्ट ३१३ में इसी श्राशयको स्पष्ट करते हुए लिखा भी है पाचओ भुंजइति णिग्वा वारावस्थाए वि किरियाणिभित्तवसुत्रलंभादो | जैसे पाचक (रसोइया) भोजन करता है, यहाँ पाचनक्रिया के अभाव में भी क्रियानिमित्तक पाचक शब्द उपलब्ध होता I हमें आशा है कि अपर पक्ष उक्त उल्लेखोंके प्रकाश में बाह्य वस्तुमें निमित्त बहारको यथार्थं न मानकर उसे उपचरिव स्वीकार कर लेगा । यहाँ अपर पक्षने बड़ी संजीदगी के साथ खेद व्यक्त करते हुए जो यह लिखा है कि 'आगमके वचनोंका अभिप्राय विल्कुल स्वाभाविक ढंग से आगम के दूसरे वचनोंके साथ समन्वयात्मक पद्धतिको अपनाते हुन् प्रकरण आदिको लक्ष्यमें रखकर वाक्यविन्यास, पदोंकी सार्थकता ग्रन्थकर्ताकी विषमजा, साहित्यिक ढंग और भाषा पाण्डित्य आदि उपयोगी बातोंको लक्ष्य में रखकर ही ग्रहण कीजिए, अन्यथा इस तरहको प्रवृत्तिका परिणाम जैन संस्कृति के लिये आगे चलकर बड़ा भयानक होगा जिसके लिए यदि जीवित रहे तो हम और आप सभी पछतायेंगे । किन्तु इन शब्दों में तो नहीं, सुस्पष्ट और मधुर शब्दों में इस विषय में हम अपर पक्ष से यह निवेदन कर देना चाहते हैं कि आवेशमें न आकर वह अपने शब्दों पर स्वयं ध्यान दे। यदि उसके मनमें सचमु समन्वयको भावना है तो उसे निश्चय और व्यवहारके जो लक्षण आपस में स्वीकार किये गये हैं उन्हें ध्यान में रखकर प्रतिनियत कार्यका प्रतिनिधत उपादान स्वीकार करके कार्य कारणभावको संगति बिटला लेनी चाहिए, इससे उत्तम और दूसरा समन्वयका मार्ग क्या हो सकता है। यह आगमानुमोदिन मार्ग है । केवलज्ञान के विषयसे श्रतज्ञान विषयको भिन्न बतलाकर लौकिक मान्यताओंको आगमरूपसे स्वीकार करानेका अभिप्राय रखना यह कोई समन्वयका मार्ग नहीं है। ५९
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy