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________________ ४६४ जयपुर (खानिया) तश्वचर्चा बह प्रमंयमलमार्तण्डक " माह मानावात् थापच्यते' इन दोनों प्रमाणोंको स्वीकार हो सकता है, किन्तु उन प्रमाणों द्वाग जो तथ्य प्रगट किये गये हैं उन्हें निष्कर्षरूपमें स्वीकार नहीं करना चाहता । जब यह नियम है कि प्रत्येक कार्यम बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको सम्यग्रता होती ही है, उसमें अपवाद नहीं। ऐसी अवस्थामै प्रत्येक कार्यके सम्मुख व्यके होने पर 'यदि बाह्य सामग्रो न हो या बाधक कारण उपस्थित हो जायं इत्यादि प्रश्नोंको अवकाश ही कहाँ रहता। आचार्यों ने इन बातोंकी चर्चा को अबश्य है, पर वह बुद्धिद्वारा सुनिश्चित किया गया कारण ही कार्यके अनुमान ज्ञान में हेतु हो सकता है इस बातको ध्यान में रखकर ही की है। उक्त दोनों प्रमाणोंमें तो उक्त बातोंकी चर्चा ही नहीं है। जब प्रत्येक कार्य विशिष्ट पर्याययुक्त विशिष्ट धके होने पर अपनी प्रतिनियत बाह्य-सामग्रीको निमितकर होता है तो आगममें कोई दूसरी बात कही गई है और लोक में कोई दूसरी बात देखी जाती है ऐसा न होकर वस्तुस्थिति यह है कि प्रतिनियत कालमें ही प्रतिनियत कार्य होता है। तत्वार्थश्लोकवातिकके द्वितीय उद्धरणमें यही तथ्य प्रकाशमै लाया गया है। प्राचार्य विद्यानन्धो अष्टसहस्री पृष्ठ १११ में लिखते हैं तथा कारणकार्यपरिणामयोः कालप्रत्यास से रसत्वेऽनमिमतकालयोरिवाभिमतकालयोरपि कार्यकारणमावासवादुमयोनिरुपाण्यतापत्तिः। उसी प्रकार कारण परिणाम और कार्य परिणाममें कालप्रत्यासत्तिके नहीं होनेपर जैसे अनभिमत कालभावी दो पर्यायोंमें कार्यकारणभावका अभाव है उसी प्रकार अभिमत कालभाबी दो पर्यायों में भी कार्यकारणभावका अभाव होनेसे दोनोंका अभाव प्राप्त होता है । इससे स्पष्ट है कि जिस प्रकार अपर पक्ष जब निमित्त मिलते हैं तब कार्य होता है यह लिखकर विवक्षित कालमें ही विवक्षित कार्य होता है इसका निषेध करता है वैसा आगमका अभिप्राय नहीं है। श्लोकवासिकके द्वितीय उद्धरणमें 'दैव' पद इसो तपको सूचित करता है, क्योंकि उपादानके अपने कार्यरूप व्यापारके समय बाह्य सामग्रीका योग रहने का एकान्त नियम रहनेके कारण उक्त उल्लेख में उक्त पद्धतिसे उस तथ्यको प्रकाश में लाया गया है। हमने उन दोनों उद्धरणोंका जो आशय है वही लिया है। हम अच्छी तरहसे जानते है कि हमारे और आपके अभिप्रायमें जमीन आसमानका अन्तर है। जहाँ हमारा यह अभिप्राय है कि प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य समर्थ उपादान कारण होकर अपने प्रतिनियत कार्यको नियमसे जन्म देता है और उसके होने में प्रतिनियत बाह्य सामग्रीका योग नियमसे मिलता है वहाँ बापका यह अभिप्राय है कि प्रत्येक उपादान अनेक योग्यताओंवाला होता है, इसलिए उसे जैसी बाह्य सामग्रोका सानिध्य मिलता है वैसा कार्य होता है । उस उपादानसे कौन कार्य हो यह बाह्य सामग्रीपर अवलम्बित है । पुमा फिराकर अनेक प्रकारसे माप अपने अभिप्रायको लिपिबद्ध कर रहे हैं पर उन सबका आशय पूर्वोक्त ही है। अपने आशयके नुरूप उसकी पुष्टिम स्पष्ट प्रमाण न मिल सकनेके कारण ही अपर पक्षको मह प्रयास करना पड़ रहा है। इस प्रकार हमारे और आपके कथनमें जो भेद है वह स्पष्ट है। आगे अपर पचने हमें लक्ष्पकर लिखा है कि 'दण्ड, चक्र, आदिमें निमित्तता उसी समय स्वीकार की गई है जब मिट्टी घट पर्यायके परिणमनके सन्मुख होती है, अन्यकालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किए गये हैं। इस विषयमें हमारा कहना यह है कि कुम्हार, दण्ड, चक्र आदिमें घटके प्रति निमित्त कारणताका अस्तित्व उपादानताभूत वस्तुकी तरह नित्य शक्तिके रूपसे तो पहले ही पाया जाता है, क्योंकि कार्योत्पत्तिके रा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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