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________________ दोज पका जो शंका और उसका समाधान ५.३१ कहलाता है। यकी प्रमाणताको बतलाने के लिये कर्ताको है प्ररूपणा की जाती है। पु० १० १२७ ॥ दिव्यध्वनि में मात्र योग ही कारण नहीं है, किन्तु केवलज्ञान भी निमितकारण है। इसीलिये दिव्यपि वचन केवलज्ञानका कार्य है 'तस्य ज्ञानावा ०१०२६८ केवलज्ञानके निमित्तसे उत्पन्न हुए पद और वास्य प्रमाण है। प्रधवल ० १ ० ४४ श्री वर्द्धमान भट्टारक द्वारा उपदिष्ट होते द्रव्यमागम ( दिव्यध्वनि ) प्रमाण है। जयधवल पु० १ ०७२ व ८३ । जिनेन्द्र भगवान् मुखसे निकला हुआ वचन अप्रमाण नहीं हो सकता :-०११०३४० ॥ जिनेन्द्रदेव अन्यवादी नहीं होते । -जयषवल पु० ७ पृ० १२७ । असत्य बोलने के कारणोंसे रहित जिनेन्द्रके मुखकमलसे निकले हुए ये वचन है, इसलिये इन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता धवल पु० २५० २६ । सम जिसने सम्पूर्ण भावकर्म और पालिया द्रव्यकर्म को दूरकर देने वस्तुविषयक शानको प्राप्त कर लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। धवल पृ० १ १० १६६ । जो पूर्व हुआ है, प्रायः अतीन्द्रिय पदार्थको विषय करनेवाला है, अविस्वभाव और युक्तिविषयपरे है उसका नाम नागम है ६ ० १५१ । 'सर्व-वचनं तावदागमः सर्वज्ञके वचन आगम समयसार गाथा ४४ टीका समणमुसाद चतुमादिनिवारणं सगाणं । सो पथमच सिरसा समयमियं सुणह बोच्छमि ॥२॥ पंचास्तिकाय अर्थ यह में कुन्दुकुन्द आचार्य इस पंचात्किायरूपसारको कहूँगा इसको तुम सुनो अम कहिये सर्वजवीतरागदेव के मुख से उत्पन्न हुए पदार्थसमूह सहित वचन तिनको मस्तक से प्रणाम करके का क्योंकि सर्वज्ञके वचन ही प्रमाणभत है। इस कारण इनके ही आगमको नमस्कार करना योग्य है। और इनका ही कथन योग्य है । वह आगम चार गठियोंका निवारण करनेवाला है तथा मोक्षफल करि सहित है। सुतं जिगोवदिहं पोमागे वयहिं । - - प्रवचनसार गाथा २४ अर्थ — पुद्गलद्रव्यस्वरूप वचनोंसे जो जिन भगवान्का उपदेश किया हुआ है वह द्रव्यभुत है । जो आत्मा क्षुधा तृषा आदि अठारह दोष रहित है यह ही आप्त कहलाता तथा उसी के वचन प्रमाण है। नायकाचार याचा ८०९ । साक्षात् विश्वतस्वाता बिना साक्षात् निर्वाध मोक्षमार्गका प्रणयन नहीं बन सकता परीक्षा के ५० २६१ आतवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ३,९४॥ - परीक्षामुख अर्थ- आप्तके वचन आदिसे होनेवाले बर्थज्ञानको आगम कहते हैं । ताकी प्रमाणता वचनमें प्रमागता आती है। इस व्यागके अनुसार अप्रमायभूत पुरुषोंके द्वारा व्यान किया गया आगम अप्रमाणताको कैसे प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य प्राप्त होगा ० १ १० १९६
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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