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जयपुर ( खानिया) तत्त्ववर्धा यदि मात्र योगको ही वचनोंको प्रामाणिकताका कारण माना जाये तो रागी द्वेषी पुरुष वानोंको भी प्रमाणताका प्रसंग आजावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं।
रागद्वेषमोहाक्रान्सपुरुषवयनाज्जातमागमाभासम् । ६,५१ -परीक्षामुख अर्ध-शगो वषो और अज्ञानी मनुष्यके वचनोंसे उत्पन्न हुए बागमको बागमाभाम कहते है।
इस प्रकार इन आगमनमानस हो जाता किमतरज्ञदेवकी दिव्यध्वनिमें प्रामाणिकता केवलज्ञानके निमित्तसे ही है, क्योंकि उनका केवलज्ञान प्रमाण है।
समयसार माथा ६६ और १००का जो तात्पर्य आपने लिखा वह ठीक नहीं है। गाथा ९९ तो च्याप्य-व्यापक अपेक्षा कर्ता-कर्मका कथन करती है। माथा नं.१०. की टोकामें पं. जयचन्दजीने लिखा है-यहाँ तात्पर्य ऐसा है कि व्यष्टि कर तो कोई तथ्य अन्य किसी व्यका का नहीं है. परन्तु दृष्टिकरि किसी वग्यका पर्याय किसी अन्य वन्यको निमित्त होता है। इस अपेक्षाले अन्यके परिणाम अन्यके परिणामके निमिसकर्ता कहे जाते हैं । परन्तु परमार्थसे वन्य अपने परिणामका कर्ता है, अन्यके परिणामका अन्य दुव्य कर्ता नहीं है ऐसा जामना ॥१०॥
आपके पांच निष्कर्ष अनुसार तो यह चर्चा हो नहीं चल सकती, क्योंकि जो प्रश्न-प्रतिप्रश्न व उत्तर प्रत्युत्तर आदि लिखित रूपसे चल रहे है परमार्थसे तो उनका कर्ता पुद्गल द्रव्य है। आपके निष्कर्षके अनुसार व्याप्य-व्यापकभावसे तन्मयताका प्रसंग आनेके कारण कोई भी आत्मा इभ लिखित प्रश्नों-उत्तरी तथा प्रतिप्रश्नों-प्रत्युत्तरों आविका का नहीं है। आपके निष्कर्षके अनुसार सामान्य आत्मा भी निमित्त-नमितिकभावसे इन प्रश्नोत्तरों प्रतिप्रश्न-प्रत्युत्तररूप पुद्गल द्रव्यपर्यायोंका कर्ता नहीं है, अन्यथा नित्यकर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा। आपके निष्कर्षके अनसार अज्ञानी जीवके योग और उपयोग पर द्रव्यों को पर्यायोंके निमित्त कर्ता है, किन्तु आप अपनेको अज्ञानी स्वीकार करनेको तैयार नहीं है, अत: आपके योग और उपयोग भी उत्तर-प्रतिउत्तररूप पुद्गल द्रव्यको पर्यायोंके निमित्तकर्ता भी नहीं है। आरके निष्कर्ष (ई) के अनुसार श्रात्मा अज्ञानमावसे योग और उपयोगका कर्ता है तथागि पर द्रव्योंकी पर्यायोंका कर्ता कदाचित् भी नहीं है। किन्तु आप अपने में अज्ञानभाव स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इसलिये आप अपनो पर्यायस्वरूप योग और उपयोगके भी कम नहीं है। उत्तर प्रतिउत्तररूप पुद्गल पर द्रव्यको पर्यायोंके कर्ता तो कदाचित् भी नहीं है। आपके निष्कर्ष (उ) के अनुसार आत्मा अज्ञानभायसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्तकर्ता नहीं है अर्थात् आप इन उत्तर प्रति उत्तर के निमित्तकर्ता भी नहीं है। आपकी उपयुक्त मान्यता अनुसार जब आपका इन उत्तर प्रतिउत्तरमे कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, गाय पुद्गलके साथ इन उत्तर-प्रत्युत्तरका सम्बन्ध रह गया तो इन उत्तर प्रत्युत्तर के आधार से आपके साथ चर्चा चल नहीं सकती, और पुगल जड़ है, उसके साथ चर्चाका कोई प्रसंग ही नहीं। इस प्रकार एक निमित्तकर्ताको स्वीकार न करनेसे सब विप्लव हो जायगा और कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी।
प्रवचनसार गाथा ४४ व ४५ का जो आपने प्रमाण दिया है उगसे तो यह सिद्ध होता है कि अहंत भगवान के रागद्वेष मोहका अभाव हो गया, अतः उनको मितनो भी क्रिया है वे बिना इन्छाके है, कर्मबन्धको कारण नही और पूर्व कर्म उदयमे आकर ज्ञेयको प्राप्त हो जाते हैं। इसमें दिव्यध्वनिको प्रमाणता या अप्रमाणताका प्रसंग ही नहीं।। समयसार गाथा ६७ का भी कोई सम्बन्ध इस प्रश्नसे नहीं है। केवलज्ञान में पदार्य प्रतिबिम्बित नहीं होते, क्योंकि प्रतिबिम्ब या छाया पदगल द्रश्यको पर्याय है ( देखो प्रदम नं. पर हमारा दूसरा उत्तर ), केवलज्ञान पदार्थोको जानता अवश्य है।