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________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है। और मैं ऐसा कि इन्यदृष्टिकर तो मैं शुद्ध चैतन्यमान मूर्ति हूँ। --समयसार रायबन्द ग्रन्थमालो पू०४-५ । दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाण ताके लिये ओ जयश्वल पु०१ पू०२३९ के वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनमें तो दिव्यध्वनि या केवलीका नाममात्रको भी कयन नहीं है। उसमें तो मात्र प्रमाण और पदार्थका जेयशायकसम्बन्ध तथा शब्द और पदार्थोम वाच्य-वाचकसंबंध दिखलाया गया है । इसके साथ यह स्पष्ट कर दिया है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम है, इसलिये वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखती है । अर्थात शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषोंके द्वारा ही शब्दोंका अर्थ संकेत किया जाता है। इसीलिये लौकिक या आगम शब्दोंकी सहज योग्यता पुरुषों द्वारा राकनके आघोन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये, बिना संकेतके शब्द पदार्थका प्रतिपादक नहीं होता । -प्रमेयकमलमार्तण्ड पु० ४३१ । व्याख्याताके बिना वैद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नहीं है, इसलिए उसका बाच्यवाचकभाव व्याख्याताके आधीन है। -धवल पु. १ पृ० १६६ । जब शब्दों के द्वारा पदार्थीको प्रकाशकता ही पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है तो उनमें स्थाश्रित प्रामाणिकता कैसे हो सकतो है, अर्थात् शब्दोंमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं है । इस प्रकार आपका दिश्यध्वनि आश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है। उसमें केवलज्ञानको प्रमाणतासे ही प्रमाणता आई है. क्योंकि वक्ताको प्रमाणतासे वचनों में प्रमाणता आती है ऐसा न्याय है। -धबल पु० १ पृ. १६६, जयघवल पु. १ पृ०८८ । असत्य पचन वो कारणोंसे बोला जाता है। प्रथम तो राग द्वेषके कारण असत्य बोला जाता है, क्योंकि जिससे राग है उसको लाभ पहुंचाने के कारण असत्य भाषण हो सकता है। अथवा जिससे द्वेष है उराको हानि पहुंचानके लिये असत्य वचनोंका प्रयोग होता है। दूसरे अज्ञानताके वश असत्य वचन बोला जा राबता है, किन्तु केवली भगवान्के ये दोनों कारण नहीं है, अतः उनफे दिव्यध्वनिरूप वचन प्रमाण है । वहा भी है रागाद् वा द्वेषाद् वा मोहाद् वा पाक्यमुच्यते अनृतम् । यस्य तु नैते दौपास्तस्यानृतकारण नास्ति ॥ आगमो ह्यातवचनमाप्तो दोषक्षयं विदः । स्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न व्रया हेत्वसम्भवात् ॥ -धवल पु.३ पृ. १२ वर्ष--राग, द्वेष अथवा मोहसे असत्व वचन बोला जाता है, परन्तु जिसके से रागादि दोष नहीं रहते उसके असत्य वचन बोलनका कोई कारण भी नहीं पाया जाता । आप्सयचनोंको मागम जानना चाहिये । जिसने जन्म-जरादि अठारह दोषोंका नाश कर दिया है उछे आप्त जानना चाहिये । इस प्रकार जो व्यक्त दोष होता है वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही संभव नहीं। रामादिका अभाव भी भगवान महावीरमें असत्य भाषणके अभावको प्रकट करता है, क्योंकि मारणके अभाव में कार्यके अस्तित्वका विरोष है। और असत्य भाषणका अभाव भो बागमकी प्रमाणताका सापक है। -धवलं पु. ६५१०८।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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