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शंका १ और उसका समाधान
५५१ अतएव संसारी आत्माको द्रव्य-भावरूप उभय-बंधनोंसे छुटने का उपाय करते समय निश्चय-व्यवहार उभयरूप धर्मका आश्रय लेने की मावश्यकता है। उसमें भी नियम यह है कि जब यह आत्मा अपने परम निश्चल परमात्मरूप ज्ञायकभावका आषय लेकर सम्यक् पुरुषार्थ करता है तब उसके अन्तरंगमें निश्चय रत्नत्रय स्वरूप जितनी जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके अनुपात में उसके बाहहमें दव्यकर्मका अभाव होता हुआ बार शर्ममी भी प्राप्ति होती जाती है। यह ऐसा विषय नहीं हैं, जिन्हें करणानुयोग का सम्यग्ज्ञान है, उनकी विवेकशालिनी रिसे ओझल हो। यही कारण है कि आचार्यवर्य अमृतचन्द्र समयसार कलशमे सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि
आसंसारा प्रतिपदममी रागिणो नित्यमसाः सुप्ता: यस्मिन्नपदमपदं तद्धि त्रुध्यध्वमन्धाः । एततेतः पदभिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभस्त: स्थायिभावत्वमसि ।।१३८॥ अर्थ-- अक्विको प्राणियो! अनादि संसारसे लेकर पर्याय पर्याय में ये रागी जीव रादा मत वर्तते हुए जिस पदम सो रहे है यह पद ( स्थान ) अपद है, अपद है (तुम्हारा पद नहीं है ) ऐमा तुम अनुभव करो 1 इस और आओ, इन ओर आओ। तुम्हारा पद यह है, तुम्हारा पद यह है जहाँ शुद्ध अतिशय शुद्ध चतन्यवात, निजरमको अतिदायताके कारण स्थायिभावत्वको प्राप्त है अर्थात स्थिर है, अविनाशो है ॥ १३८॥
द्वितीय दौर
शंका ९ हमारा प्रश्न था कि-सांसारिक जीव बद्ध हैं या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बँधा हुआ है और किसीसे बँधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है त। उसके बन्धनसे छूटने का उपाय क्या है ?
प्रतिशंका २ इस प्रश्नको उत्तरमै बापने संसारो जीवको परतन्त्र तो माना है, किन्तु किस 'पर' (पदार्थ) के 'तन्त्र' (भचीन) संसारी आत्मा है उम्र 'पर' का स्पष्ट उल्लेख आपके उत्तरमें नहीं आया । बन्धका विवेचन करते हए श्री कुन्दकन्दाचार्यने समयसारमें लिखा है--
जोगणिमित्त गहां जोगो मण-बयण-कायसंभूदी। भावणिमिसो बंधो भावी रदि-राग-दोस-मोहजुदो ॥१४८॥