SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५० जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा तथा शुद्ध निश्चयनयकी अपेष्टा परम पारिणामिक भावस्वरूप शुद्ध जीवके द्रव्यकर्म,भाषकर्म और नोकर्म का अभाव होनेसे वह सकल दोषोंसे विमुत्रत है । श्री नियमसारमोकी गाथा ४५ की टीकामें कहा भी है शुद्ध निश्चयनयेन शुद्ध जीवास्तिकायस्य द्रव्य-भाषनोकर्माभावात सकलदीपनिमुः । अर्थ पूर्वमें दिया ही है। इस प्रकार सांसारिक जीव किस अपेक्षा बद्ध है और किस अपेक्षासे मुक्त ( अबद्ध ) है, आगमसे इसका सम्यक निर्णय हो जानेपर वह किससे बंधा हुआ है और किसास हो. कारण वह परतन्त्र किस प्रकार है इसका सम्यक निर्णय हो जाता है। तात्पर्य यह है कि यदि अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो वह अज्ञानरूप अपने अशुद्धभावोंसे वास्तवमै बद्ध है । उसे यदि पद्धताका अभाव करना है तो अपनी इमो बद्धताका अभाव करना है। उसका अभाव होनेरो जो असद्भूतव्यवहाररूप बद्धता कही गई है उसका अभाव स्वयमेव नियमसे हो जाता है, क्योंकि अशुद्ध निश्चय और व्यवहारके भावाभावके सहगामो होनेका सर्वष यही नियम है। अतएव संसारी आत्मामें यदि परतन्त्रताको अपेक्षा विचार किया जाता है तो वह अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा अपने अज्ञान भावसे बद्ध होने के कारण वास्तवमें परतन्त्र है और असद्भुतम्यवहारनयको अपेक्षा विचार किया जाता है तो उसमें उपचरितरूपमे कर्म और नोकर्मकी अपेक्षा भी परतन्त्रसा घटित होती है। इस प्रकार संसारी आत्मा किस अपेक्षा किस प्रकार बंधा है इसका सम्यक निर्णय हो जाने पर उसके बेपनोंसे छूटने के उपाय क्या है ? इसका सम्यक् निर्णय करने में देर नहीं लगती। आगममें सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग, द्वेष और मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करने के लिये अंतरंग पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचार. से व्यवहार धर्म कहा है उसी प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकर्मोको निर्जरा न होने के समान है। इसी आशयको ध्यानमें रख कर श्री छहकालामें जो यह कहा है कि कोरि जनम तप तपै ज्ञान बिन कम करेंजे। ज्ञानीक छिनमें त्रिगुप्तित सहज टरे ते || वह यधार्थ ही कहा है। यह कथन केवल पं० प्रवर दौलतरामजोने ही किया हो ऐसा नहीं है, किन्तु प्राचीन परमागममें भी इसका सम्यक् निरूपण हुआ है। आवार्यबर्व अमृतचन्द्र इसी आशयको व्यक्त करते हुए समयसारजोके बलश में कहते हैं रामद्वेषोखादकं तवरष्टया नान्यदव्यं वीक्ष्यते किचनापि । सचंद्रगण्योत्पत्तिरन्तइचकास्ति म्यकात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥२३९॥ अर्थ-तत्त्वष्टिसे देखा जाय तो राग-द्रेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किञ्चित मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है ।।२३६।। आगा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy