SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम दौर शंका २ सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बँधा हआ है और किसीसे बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है तो उसके बंधनोंसे छूटनेका उपाय क्या है? समाधान १ सांसारिक जोन सद्भुतव्यवहारस्वरूप अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा अपने अज्ञानरूप राग, द्वेष और मोह मादि अशुद्धभावोंस बद्ध है। अग्रमामा सर्च एवं तावस्मविकल्प-निर्विकल्पपरिच्छेदात्मकस्त्रादुपयोगमयः। तन यो हि नाम नानाकारान् प. नासराव गधा समुरते: नाम : परप्रत्ययैरपि मोह-राग-द्वेषरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नील-पीत-रकीपाश्रयप्रत्ययनील-पात-रनस्वरुपरकम्वभाव; स्फटिकमणिरिव स्वयमक एक तत्भावद्वितीयत्वाद् बन्धो भवन्ति ॥१४॥ -प्रवचनसार गा० १७५ अर्थ-प्रथम सो सह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है। उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कासेएन, पीलेपन और ललाईके द्वारा उपरसस्वभाववाले फिटिक यगको पति-पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और टेषके द्वारा उपरक्त (चिकारी) आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं अकेला ही बन्धरूप है, क्योंकि मोह, राग, द्वेषादि भाव इसका द्वितीय है।॥१७४॥ असद्भत बनवहारनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ व्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म के साथ बद्ध है। अत्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षस्वस्पर्श विशेषैरेकवपरिणामः स केवलपुद्गलबंधः । यस्तु जीवस्यौपाधिकमीह-राग द्वेषपर्यायैरकवपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जोक्कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमिसमाग्रन्वेन विशिष्टतरः परस्परभवगाहः स तदुभयबन्धः ।।१७७॥ -प्रवचनसार गाथा १७७ टीका अर्थ-प्रथम तो यहाँ, काँका जो सिमानता-रूसतारूप स्पर्श विशेषोंके साथ एकत्वपरिणाम है सो केबल पुद्गलबध है; और जीत्रका ओपराधिक मोह, राग, द्वेषरूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबंध है; और जीव तथा कर्म पुद्गलके परस्पर परिणामके निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है अर्थात जीव और कर्मपदगल एक-दसरेके परिणाम में निर्मितमात्र होवें ऐसा जो । विशिष्ट प्रकारका ) उनका एकक्षेत्रावगाह संबंध है सो वह पुद्गलजोदात्मक बंध है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy