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________________ ५५२ जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-मन-वचन-कायके हलन, चलनसे उत्पन्न हुआ आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दरूप योग होता है । उस योगसे जो कार्मण वर्गणाओंका संसारी जीषको ग्रहण होता है वह बन्ध है। बह कर्मबन्ध जीवके राग, द्वेष, मोह आदि भावोंके निमित्तसे होता है। श्री अमृतचन्द्र सूरिने इस गाथाको टीकामे लिखा है बन्धस्तु कर्मपुद्गलानां विशिष्ट शक्तिपरिणामनावस्थानम् । तदन्न पुद्गलानां ग्रहणहेनुत्वाद् बहिरङ्गकारणं योगः । विशिष्टशक्किस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव एवेति । अर्थ-कमपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप (जीवको विकारी बनानेल्प) परिण मनसे गात्मप्रदेश में अब. स्थित होना बन्ध है।.."यहाँ पर कार्मणपुद्गलोंके ग्रहण करने का बहिरङ्ग कारण योग है । स्थिति तथा अनुभागका कारणभूत अन्तर कारण जीवका कषायरूप भाव है। राग द्वेप माह परिणाम जीवको विकारो पर्याय है जिसके साथ जोत्रका व्याप्य-व्यापकसंबंध है। रामदिन पर्याय के सात जीपका मक सुरंध नहीं हो सकता। अतः मोह राग द्वेष आदि पर्यायका जोषके साथ बंध कहना अयुक्त है। मोह राग द्वेष परिणापबंधके कारण हैं। कारण में कार्यका उपचार करके आगममें इनको भावबंध कहा है। इस तरह पंचास्तिकाय गाथा १४८ में व्यबंध और भावबंध पर ममचित प्रकाश डाला है। हमनसार द्रव्मकर्म (मोहनीयादिकम) से भावकम (द्रव्यकर्मका निमित्त कारणभत राग द्वेष आदि) होता है और भावकसे द्रब्यकर्म होता है। इस तरह दध्यक्रम भाषकर्मकी परम्परा संसारो जीवके चलती रहती है और इसीको संसार नक कहते हैं । __ श्री अमृतचन्द्रसूरिने इसी विषयपर पञ्चास्तिकाय ग्रन्थको १२८-१२६-१३०वी गाथाकी व्याख्या करते हुए अच्छा प्रकाश डाला है ___ इह हि संसारिणो जीवादनादिवन्धनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामी भवन्ति । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिपणमात्मकं कर्म 1 फर्मणो नरकादिगतिषु गप्तिः । गत्यधिगमनाइहः । दहादिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणं | विषयग्रहणादागद्वेषौ । राग-द्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः । परिणापुनः पुद्गल-परिणामात्मकं कम । कर्मणः पुननस्किादिगति गतिः । तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीव परिणामो जीवपरिणाममिमित्तश्च पुद्गलपरिणामः । अर्थ-संसारी जीव अनादि कालसे मोहनीय कर्म-उपाथिसे स्निग्ध (रागादि रूप) होता है । उस स्निग्ध परिणामसे पुद्गल परिणामात्मक द्रव्यकम उत्पन्न होता है, प्रव्यकर्म के उदयस नरक आदि गतियों में गमन होता है, गतिके कारण तदनुरूप शरीर मिलता है, शरीरसे इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियोसे विषयोंका ग्रह्ण होता है, विषयसेवनसे रागद्वेग होते हैं. रागद्वेषसे आत्माके परिणाम स्निग्ध होते हैं. उस स्निग्ध परिणामसे र कर्मबन्ध होता है।''"इस तरह संसारमं पदमल कर्मके निमित्तमे जोवके रागहषादि परिणाम होते हैं और जीवके रागद्वेषादि परिणामसे पदगल कर्मपरिणमन होता है। मोहनीय आदि द्रव्यकर्म, राग द्वेष आदि आत्माके विकारी भावोंके प्रेरक निमित्त कारण हैं और राग द्वेष आदि आत्माके विकृतभाव मोहनीय आदि प्रयकर्मबन्यो प्रेरक निमित्त कारण है। जब आत्माकै प्रबल पुरुषार्थसे प्रध्यक्रमों-मोहनीय आदिका क्षय होता है तब विकारका निमितकारण
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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