SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयपुर (खानिया)तत्वचर्चा कि व्यवहार नयसे यह संसारी जीव बद्ध है जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सुरिने कलश २५ में कहा है कि 'एकस्य बद्धो न तथा परस्य' अर्थात् 'यह जोव व्यवहारनपसे बंधा है, निश्चय नयसे बंधा हुआ नहीं है।' यह हमको भी इष्ट है। (आ) यदि बंधा हुआ है तो किससे बंधा हुआ है ? इसके प्रथम उप्सरमें आपने कहा था कि 'यह जीव सद्भूत व्यवहारनगसे अपने रागादि भावोंसे बंधा हुआ है । असदभत व्यवहारनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों तथा औदारिक शरीर आदि नोकोकि साथ बद्ध है। इसके पश्चात प्रसंगके बिना पुदगलबंधादिका कथन किया। फिर कहा 'अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा जीव अज्ञानरूप अशुद्ध भावोंसे वास्तत्रसे बद्ध है।' इसपर हमने यह लिखा था कि रागादिक तो कर्मोदयजनित व्यवहारनपसे आत्माके विकारी भाव है, जो बंधके कारण होनेसे भाषबंध कह जाते हैं, उनसे जीवका कयंचित व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध तो है, क्योंकि विकारी पर्याय है। किन्स स्वपर्यायके साथ बंध्य-बंधकभाव कदापि नहीं हो सकता। इसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया। इसका अर्थ है कि वह आपको स्वीकृत है। (४) बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? आपने प्रथम उत्तरमें कहा था 'संसारी आत्मा अशुद्ध निश्चयनमकी अपेक्षा अपने अज्ञान भाबसे बद्ध होने के कारण वास्तवमै परतन्त्र है और असद्भुत व्यबहारनयको अपेक्षा उपचरितरूपसे कर्म और नोकर्मकी अपेक्षा भी परतन्त्रता घटित होती है। इसके सम्बन्ध में हमने आप्तपरीक्षा कारिका ११४ को टीकाका प्रमाण देते हुए यह सिद्ध किया था कि आत्मा पौगलिक द्रव्यकों के कारण परतंत्र हो रहा है और रागादि भाव परतन्त्रता स्वरूप है, इसलिये आत्माके भाव स्वयं परतन्त्ररूप है, आत्माको परतन्त्रताके निमित्त नहीं है। इसका भी आपने कोई उत्तर नहीं दिया । इसका अर्थ है कि यह भी स्वीकार है। मूल प्रश्नके इन तीनों खण्डोंके प्रश्नोत्तरोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन तीन खण्डोंके विषयमें हममें और आपमें कोई मतभेद नहीं है । अदभूतव्यवहारनय का लक्षण प्रथम उत्तरमै है । बापने इसी प्रश्नके अपने द्वितीय उत्तर में सर्व प्रथम असदभत व्यवहारनवका लक्षण इस प्रकार किया है-एक द्रव्यके गुण-धर्मको अन्य द्रव्यका कहना यह अद्भूत व्यवहारमय है ।' किन्तु प्रथम उत्तरमें यह कहा था-'अयद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रज्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्मके साथ बंधा है ।' अर्थात् दो भिन्न वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध असदभूत व्यवहारनयका विषय है। इसी लक्षणको आपने आठ प्रश्नके प्रथम सप्तरमैं इन शब्दों द्वारा लिखा है-'दो या दोसे अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायों में जो सम्बन्ध होता है वह असद्भुत ही है। इस प्रकार आपके द्वारा एक ही प्रश्नके दो उत्तरोंमें असद्भुत व्यवहारनयके दो लक्षण कहे गये हैं। किन्तु यहाँ पर बंधका प्रकरण है और बंध दो भिन्न वस्तुओं में होता है । अतः इस प्रश्नमें 'भिचषस्तुविषयोऽसद्भतज्यवहारः' 'अर्थात् भिन्न वस्तु जिसका विषय हो वह असद्भत व्यवहारनय है', यह लक्षण उपयोगी है। दूसरे यह लक्षण आध्यात्मिक दृष्टिसे है और 'स्वाश्रितो निश्चयः' यह लक्षण भी आध्यास्मिक दृष्टिसे है । अतः दोनों लक्षण अध्यात्मदृष्टिदाले लेने चाहिये । जब निश्चयका लक्षण अध्यात्मनयको अपेक्षासे ग्रहण किया जा रहा है तो व्यवहारलयका लरण भी अध्यात्मनयवाला लेना चाहिये ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy