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________________ शंका ९३ और उसका समाधान ७८९ अप्रमत्तसंगत गुणस्थानवाले मुनिके परिणामों की विशुद्धता अनन्तगुणो है अर्थात् श्रत्रकको उत्कृष्ट विशुद्धता अप्रमत्तसंयतको विशुद्धतामें लीन हो जाती है । आदि, यह है कि हम अपनेको करणानुयोगका विशेषज्ञ तो नहीं मानते, किन्तु उसका अभ्यासी व्यवश्य मानते हैं । हमने जो पूर्वोक्त वचन लिखा है वह उसके अभ्यासको ध्यान में रख कर ही लिखा है और यथार्थ लिखा है । उस वाक्यमें श्रावकके उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ने की बात कही गई हैं। वे परिणाम सप्तम गुणस्थानके परिणामोंमें लोन हो जाते है या उनका व्यय होकर अनन्तगुणी विशुद्धिको लिए हुए नये परिणामोंका उत्पाद होता है यह कुछ भी नहीं कहा गया है। जो जीव पाँचवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थानको प्राप्त होता है, वह नियमसे साकार उपयोगवाला होता है, अतएव ऐसे जीव के अपने उपयोग में पंचम गुणस्थानके विशुद्ध परिणामोंसे परिणत आत्माका आलम्बन छूट कर नियमसे सातवें गुणस्थान के विशुद्ध परिणामोंसे परिणत आत्माका आलम्बन रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । स्पष्ट है कि प्रकृत में हमारे उक्त वाक्यको ध्यान में रखकर अपर पक्ष जो कुछ भी लिखा है वह युक्तियुक्ल नहीं है । अपर का कहना है कि 'विशुद्धता छोड़ी नहीं जाती किन्तु प्रति प्रति गुणस्थान बढ़ती जाती है।' आदि । इस सम्बन्धमें हम अधिक टोका-टिप्पणी किये बिना अपर पक्षका ध्यान उत्पाद व्ययके सिद्धान्तको ओर आकर्षित कर देना चाहते हैं । इससे उस सके ध्यान में यह बात भली-भाँति आजायगी कि ६३ पुटवाली चरमराईका व्यय होकर द्रव्यमें जो शक्तिरूप में २४ पुटवाली पराई पड़ी है उसका पर्यायरूपले उत्पाद होता है । तास्पर्य यह है कि पूर्व पर्यायका व्प्रय होकर ही नवीन पर्याय उत्पन्न होती हैं । पिछला पर्यायें अगला पर्यायोंमें विलीन होकर उनका समुदाय नहीं बना करता । १५. व्यवहारधर्मका खुलासा हमने लिखा था कि 'निश्चपमंके माथ गुणस्थान परिपाटीके अनुसार जो देव, शास्त्र, गुरु, अहिंसादि अयत और महाव्रत आदि रूप शुभ त्रिकल्प होता है जो कि रागपर्वाम है उसका यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है ।" अपर पक्ष इस वाक्यमेसे 'अहिंसादि अणुव्रत' इत्यादि वाक्यको सामायिक और छेदोपस्थापना संयमके विरुद्ध मानता है, किन्तु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि अहिंसादि पाँच महाव्रतों का सराग संयम अन्तर्भाव होता है और सरागसंगम में अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्तिको मुख्यता है। सरागसंयमका लक्षण करते हुए सत्रार्थसिद्धि ० ६ ० १२ में लिखा है संसारकारणविनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णोऽश्रीणाशयः सराग इत्युच्यते । प्राणीन्द्रियेव शुभप्रवृत्तेर्विरतिः संयमः । सरागस्य संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः | जो संसार के कारणों की निवृत्तिके प्रति उद्यत है, परन्तु जिसकी कषाय अभी क्षोण नहीं हुई हैं वह सराग कहलाता है । प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में अशुभ प्रवृत्तिसे विरांत होना संयम है। रागी जोवका संयम या रागसहित संयम सराग संयम है । तस्त्रार्थवार्तिक और तत्त्वार्थरलोकवार्तिक में सरागसंयमका यहो अर्ध किया है। इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थ सूत्र अ० ७ ० १ में व्रतका जो लक्षण किया गया है वह उक्त अभिप्रायको ध्यान में रखकर ही किया गया है । व्रत में जहाँ अशुभसे निवृत्ति इष्ट होती है वहाँ शुभ में प्रवृत्ति हुए बिना नहीं रहती ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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