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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा परन्तु संवरका स्वरूप इससे सर्वथा भिन्न है। वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके परिणामों के निरोधस्वरूप स्वीकार किया गया है । कहा भी है
सः संघरो भायसंवरः शुभाशुभपरिणामनिरोधः । -अनगारधर्मामृत अ० २, श्लोक ४१
यही कारण है कि हमने अपने पूर्वोक्न कथनमें अहिंसादि अणुजत और महावत आदिको रागरूप बतलाकर उनकी परिगणना व्यवहारधर्ममें को है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते बाए सर्वार्थसिदि-१ में लिखा है
तत्र अहिंसाचलमादौ किमले, प्रधानस्यात् । सत्यादीनि ही तत्परिपालनार्थानि सम्यस्त्र वृत्तिपरिक्षेपवत् । सर्वसावधनि वृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एक तम् । तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पञ्चविधमिहोच्यते । ननु च अस्य प्रसस्यानबहेतुःवम नुपपन्नम् , संवरहसुबन्तर्भाधास् । संघरहतवो वक्ष्यन्ते गुप्तिसमित्यादयः । सन दशघिधे धर्म संयमे वा बतानामन्तर्भाव इति च दोषः, तत्र संघरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते । प्रवृत्तिश्चान रश्यते, हिंसानुनादत्तादानादिपरित्याग अहिंसासत्यदनादानादिक्रियाप्रतीतः गुप्स्यादिसंघरपरिक मरवारच । अशेषु हि कृसपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं फरोतीति तप्तः पृथक्त्वेनोपदेशः कृतः ।
यहाँ अहि.सावल को आदिमें रखा है. क्योंकि वह प्रधान है। धान्यको बाठोके समान ये सत्यादिक त उसके परिपालनके लिए है।
सर्व सावधसे निवृत्तिलमण सामायिककी अपेक्षा एक व्रत है। वही दोपस्थापनाको अपेक्षा पाँच प्रकारका है। वहीं यहां कहा है।
शंका-इस व्रतको आस्रबहेनुता नहीं बनती, क्योंकि संबर के हेतुओं में इसका अन्तर्भाव होता है। ofति आधिपत म। हह दाम प्रमाके धमम अथवा संयमम अतोंका अन्तर्भाव होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिलक्षण संवर कहेंगे और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है, क्योकि हिसा, असत्य और अदत्तामान आदिका त्याग होनेपर अहिंसा, सत्यवचन और दत्तादान आदिरूप क्रिया प्रतीत होती है तथा ये अहिंसा आदि गप्पयादिरूप संवरके परिकर्मस्वरूप है। व्रतोंमें जिसने परिकर्म किया है ऐसा साधु सुम्बपूर्वक संवर करता है, इसलिए इनका पृथक्ये उपदेश दिया है।
तत्त्वार्थवानिक ६.१ में लिखा है
न संवरो व्रतानि परिस्पददर्शनात् ॥१३॥ प्रतानि संवरव्यपदेश नाईन्ति । कुतः परिस्पन्ददर्शनात् । परिस्पन्दी हि दृश्यते, अनुतादत्तादानपरित्यागे सत्यवघनदसादानक्रियाप्रतीते।
द्रत संबर नहीं है, क्योंकि परिस्पन्द देखा जाताई ॥१३॥ ब्रत संवर व्यपदेशके योग्य नहीं है, क्योंकि परिस्पन्द देखा जाता है। परिस्पन्द मिश्रमस देखा जाता है, क्योंकि अनत और अदतादानका त्याग होनेपर सत्य वचन और दत्तादान क्रियाको प्रतीति होती है।
ये आगमप्रमाण है। इनसे भी अपर पक्षक अभियायको पष्टि न होकर हमारे ही अभिप्रायको पष्टि होतो है। यतः प्रवृत्तम ग्रस आसपहप लिए गये है, अत: मामायिक और छेदोपस्थापना भी उक्तरूप होने में बाधा नहीं आती। हां, जहां संवरके प्रकरण में इन्हें स्वीकार किपा गया है वहीं अवश्य ही ये सब परम बोसरागचारित्रस्वरूप प्राप्त होते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र १११ में जिस मोक्षमार्गका निर्देश है वह निश्चय रत्नत्रयस्वरूा आत्मधर्म है। उसे उपस्थित कर सरागचारित्र या सरागसंयमको वीतराग चारित्र या वीतराग संयम सिद्ध करना उचित नहीं है।