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________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२१ तार्थसूत्र ६ २ तथा ६।१८ में संवररूपप्ति आदिका तथा सामायिक संयम आदिका निर्देश है, शुभप्रवृत्तिरूप व्रतादि तथा सामायिक निर्देश नहीं है। गुप्ति आदिमें बड़ा अन्तर है | अपर पक्ष इन दोनोंको मिला कर भ्रम में रखने का प्रयत्न कैसे कर रहा है इसका हमें ही क्या सभीको आश्चर्य होगा | जिसे सभप्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म कहा है वह निश्चयधर्म में अनुरागका हे हैं, इस स्वरूप होकर भी धर्मरूपसे उपचारित किया जाता है। यहाँ उपचारका निमित एकार्थसम्बन्धीपना है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए अनगारधर्माभूत [अ०] १ श्लो० २३ को उपास्यामं कहा है यथोक्तधर्मानुरागर्हेनुकोऽपि पुण्यबन्धो धर्म इत्युपचर्यते । निमित्तं चान्नोपचारस्यैकार्थसम्बन्धित्वम् । इससे सिद्ध है कि अशुभको निवृत्ति और शूनमें प्रवृत्तिरूप जो व्रत है वह शुभ विकल्परूप होने से परिणाम ही है । उसे दररूप के हो कह सकते हैं जिन्हें मात्र बाह्य क्रियामें धर्मसर्वस्त्र दिखलाई देता हूँ । किन्तु जो निश्चवस्वरूप आत्मवमंके पारखी है वे तो इसे स्वीकार करते ही नहीं। उनकी इस विपरीत मान्यताको ती आगम भी स्वीकार नहीं करता । आगम तो यह कहता है कि जिसे निश्चयधर्म की प्राप्ति हुई है उसके ही भमीचीन व्यवहारधर्म होता है । ऐसे धर्मात्मा पुरुषोंका सानिध्य होने पर भला कौन ऐसा ज्ञानी होगा जो उनके प्रति पदके अनुरूप बन्दना आदि नहीं करेगा | हाँ, जो आचार शास्त्र के अनुसार व्यापदवी व्यवहारधर्मका पालन करें नहीं, प्रत्यक्ष हो जिनमें नाना विसंगतियो दिनलाई दें, फिर भी उन्हें चारित्रवान् कहा जाय तो हम मोक्षगागंका हो उपहास मानेंगे | हमारा किसीके प्रति विरोध नहीं है और न हम यह हो चाहते है कि मोक्षमार्ग में किसी प्रकारका अवरोध उत्पन्न हो । परन्तु हम इतना अवश्य जानते हैं कि आज कल कलित की जा रहीं विपरोत मान्यता बांके आधार पर यदि शिथिलाचारको प्रोत्साहन दिया गया तो फिर समीचीन भोक्षमार्गकी रक्षा करना अतिदुष्कर हो जायगा । अगर पक्षने लिखा है कि 'अव यह कह देते हैं कि हमारी क्रमवद्धपर्यायों में व्रत धारण करना पड़ा हुआ ही नहीं है, पर्वा आगे पीछे हो नहीं सकती फिर हम कैसे त्याग कर सकते हैं ?" समाधान यह है कि जिसका विश्वास है, जो यह विश्वास करता है कि पर्याय आगे-पीछे नहीं हो सकती या नहीं की जा सकती तथा जिसे सर्वज्ञतामें विश्वास है वह अभिप्राय में कुछ हो और बाहर कुछ करे ऐसा नहीं हो सकता । वास्तवमें देखा जाय तो वह निकटसंसारी है, वह शीघ्र ही निश्चयधर्म के अनुरूप व्रतोंकी धारण कर मोक्षका पाठ बनेगा। यह सर्वज्ञने हमारी पर्याय व्रत देखे ही नहीं' ऐसा त्रिकालमें नहीं कह सकता। वह जब जिस पदवा में होगा उस पदवीके अनुरूप बाह्य शुभाचारका नियमसे पालन करेगा | पापरूप प्रवृत्ति करनेकी उसकी स्वमात्रतः रुचि नहीं होगी । १६. साध्य साधनविचार अपर पक्षका कहना है कि 'यदि व्रतांको राग माना जायगा तो वे व्यवहारधर्म ही नहीं हो सकते, क्योंकि व्यवहारधर्म तो निश्चयधर्मका साधन है ।' समाधान यह है कि आचार्योंने संत्ररको शुभ-अशुभको निवृत्तिस्वरूप कहा है और व्रत शुभ में प्रवृत्तिरूप है, इसलिए उन्हें प्रशस्त रागरूप मानना ही उचित है विशेष स्पष्टीकरण अन्यत्र किया ही है ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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