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________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा कारणभावका निर्देश किया है वह केवल यह बतलाने के लिए ही किया है कि प्रत्येक कार्य स्वकालमें होकर व मात्र इसी मियमको सूचित करता है। कोई भी कार्य अपने स्वकालको छोड़कर कभी भी किया जा सकता है इस नियमको नहीं । १३. प्रतिनियत कार्य प्रतिनयत कालमें ही होता है। पर पानी पीनामुरका १३.कुछ सूत्र और उनका अर्थ देकर यह लिखा है कि जिस प्रकार घट-पट आदिको और उपयोग ले जाकर जाननेका कोई नियत काल नही है, उसी प्रकार स्त्रोन्म स्वको जाननेका भी कोई नियत काल नहीं है, क्योंकि सर्व कार्योका नियामक कोई नियत काल नहीं है, किन्तु बाह्य-आभ्यन्तर समर्थ कारण सामग्री कार्यको नियामक है।' आदि, - समाधान यह है कि उस बाह्य-आभ्यन्तर प्रतिनियत सामग्रीमें प्रतिनियत काल भी. सम्मिलित है। इससे सिद्ध होता है कि प्रतिनियत कालमें ही प्रतिनियत सामग्रोकी उपलब्धि होती है और ससे निमित्त कर प्रतिनियत कार्यको हो उत्पति होती है । कोई किसीकी प्रतीक्षा नहीं करता । अपनेअपने काल में प्रतिनियत सामग्री प्राप्त होती है। अन्य सामग्री के काल में वह प्राप्त हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह अन्य सामग्रीके प्राप्त होनेका स्वकाल है। यदि अन्य सामग्री के कालमें उससे जुदो दुसरी सामग्रो प्राप्त होने लगे तो किसी भी सामग्रीको प्राप्त होनेका अवसर न मिल सकसे कारणरूप बाह्याम्यन्तर सामग्रांका अभाव हो जायगा और उसका अभाव होनेसे किसी भी कार्यको उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। परिणामस्वरूप उत्पाद-व्ययका अभाव होनेसे दृष्यका ही अभाव हो जायगा। मत: द्रव्यका अभाव न हो, अतः प्रतिनियत कालमै प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रौके साथ प्रतिनियत पुरुषार्थको स्वीकार कर लेना चाहिए । इससे सिद्ध होता है कि प्रतिनियत कालमें प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्री प्राप्त होकर उससे प्रतिनियत कार्य की ही उत्पत्ति हुआ करती है। भट्टाकलंकदेवने तत्वार्थवार्तिक १ । ३ में 'यदि हि' इत्यादि बचन सब कार्योंका मात्र एक काल हो कारण है इस एकान्तका निषेध करने के लिए हो कहा है। प्रतिनियत कार्यका प्रतिनियत काल निमित्त है ऐसा होने से पुरुषार्थकी हानि हो जाती है ऐसा उनका कहना नहीं है। अतएच प्रतिनियत कार्यको प्रति नियत बाह्य-आभ्यन्तर सामग्री में जैसे प्रतिनियल अन्य सामग्रीका समावेश है उसी प्रकार उसमें प्रतिनियत काल और प्रतिनियत पुरुषार्थ का भी समावेश है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। प्रमादी बन कर ऐशोआराममें से ही मस्त रहते हैं जिनकी सम्यक्त्वोत्पत्तिको प्रसिनियत काललब्धि नहीं आई, अतएव मोक्षमार्गके अनुरूप पुरुषार्थ न कर विपरीत दिशामें किये गये पुरुषार्थको मोहमार्गका पुरुषार्थ मानते है। नहीं जिनको सम्यक्त्वोत्पतिको काललब्धि मागई है अतएव उसके अनुरूप पुरुषार्थमें लगे हुए हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व प्राप्तिके उत्कृष्ट कालका विचार करते हुए प्रस्तृत प्रतिशंकामें आई हुई अन्य दातोंका भी विचार किया। १४. प्रकृतमें विवक्षित मालम्बनके प्रहण-त्यागका तात्पर्य बागं अपर पक्षन हमारे 'श्रावक के उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्व प्रथम अप्रमसभावको प्राप्त होता है' इस बाक्य पर कसी टीका करते हुए लिखा है--'करणानुयोग विशेषज्ञको सलोमांति ज्ञात है कि सप्तम गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषावोदयका अभाव होनेसे श्रावकके पंचम गुणस्थानको अपेक्षा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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