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________________ star १६ और उसका समाधान ७८७ | इससे स्पष्ट है कि सब कार्य अपनी-अपनो काललपिके प्राप्त होने पर ही होते हैं। किसी अनादि मिथ्यादृष्टिको प्रथम सम्यक्त्व अपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल के शेष रहनेवर होता है, किसी को इसमें एक समय, दो समय तीन समय आदि संख्यात समय, असंख्यात समय काल कम होकर प्रथम सम्यक्त्व होता है उसका प्रमुख कारण काललब्धि ही है, अतः सम्ययत्वोत्पत्तिका काल नियत नहीं है ऐसा लिखकर प्रत्येक कार्यको कालब्धिको अवहेलना करना उचित नहीं है । सब जीवोंका विवक्षित एक कार्य एक कालमें न हो यह दूसरी बात है. परन्तु प्रत्येक जीवका प्रत्येक कार्य अपने-अपने नियत काल में हो होता हैं यह सुनिश्चित है । काललब्धिका ऐसा ही माहात्म्य है। मवला पु० ६ ५० २०५ का वह उल्लेख इस प्रकार है सुत्तें कालीक सभवो ? ण, पडिसमयमांतगुण. अणुमा गुदीरणाए अनंतगुणक्रमेण षड्ढमाणविसोहीए आइरियोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो 1 पूर्व में | दया ही है । ५. अपर पक्ष पंचास्तिकाय गा० २० की आचार्य जयसेनकृत टोकाका एक वाक्यांश उद्धृतकर अपने पक्षका समर्थन करना चाहा है, किन्तु वह इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि माचार्य जयसेनने वेणु ( त्रास ) दण्डको उदाहरणरूप में उपस्थितकर उसके पूर्वार्ध भागको ही विचित्र चित्ररूप बतलाया है। उसके उत्तरार्ध को तो वे विचित्रचिनेका अभाव होनेसे शुद्ध ही सुचित कर रहे हैं। स्पष्ट है कि इस उदाहरण से तो यही सिद्ध होता है कि इस जीवकी जितनी सुनिश्चित संसार अवस्था है वह प्रतिनियत नानारूप है, मुक्त अवस्था नहीं । उनके उस कथनका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है या महान् वेणुदण्डः पूर्याभागे विचित्रवित्रेण खचितः शबलितो मिश्रिवः तिष्ठति । तस्मादूर्ध्वार्थभागे विचित्रचिभावाच्छु एव तिष्ठत । तत्र यदा कोऽपि देवदत्तो दृष्टावलोकनं करोति तदा भ्रान्तिज्ञानशेन विचित्रशादशुद्धत्वं ज्ञात्वा तस्मादुत्तरार्वभागेऽप्यशुद्धत्वं मन्यते । आदि, जिस प्रकार एक बहुत बड़ा वेणुदण्ड पूर्वार्श्वभाग में विचित्र स्वित्ररूपसे खत्रित होकर शत्रति मिश्रित स्थित है । परन्तु उसमे कारके अर्धमाग में विचित्र-चित्रका अभाव होनेसे शुद्ध ही स्थित है । उसपर जब कोई देवदत्त दृष्टि डालता है तब भ्रान्तिज्ञान के कारण विचित्र चित्रवश अशुद्धताको जानकर उससे उत्तरार्ध भाग में भी वह अशुद्धता मानता है। आदि । आचार्य अमृतचन्द्र ने भी एक बड़े भारी वेणुदण्डको विद्वान् पाठक इन दोनों टीका वर्षानोंको सावधानी यह आचार्य जयसेनकी टोकाका कुछ अंश है। उदाहरणरूप में उपस्थितकर इस विषय को समझाया है। पूर्वक अवलोकन कर लें। इस उदाहरणये ये तथ्य फलित होते है १. द्रव्यार्थिक दृष्टिसे देखनेगर पूरा वेणुदण्ड शुद्ध हो है । २. पर्यायार्थिक दृष्टि बनेपर वेणुदण्डका प्रारम्भका कुछ भाग बशुद्ध है, शेष बहुभाग शुद्ध है । ३. वेणुदण्ड में पर्याय दृष्टिसे अशुद्धता वहीं तक प्राप्त होती है जहाँ तक वह अशुद्ध है। उसके बाद नियम पर्याय से शुद्धता प्रगट हो जाती है । - यह उदाहरण है । इसे भव्य जीवपर लागू करनेपर विदित होता है कि यह जीव द्रव्यष्टि सदा शुद्ध है |दृष्टि अशुद्धता नियत काल तक ही है। उसके व्यतीत होनेपर वह पर्याय में भी शुद्ध हो है । इससे स्पष्ट है कि सभी कार्य अपने-अपने स्वफालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं । आगममें जो कार्य
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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