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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा उस वचनका फलितार्थ यह है कि सम्यक्त्व गुणके कारण इस जीवने अनन्त संसार अर्थात् मिथ्यात्वका नाश फिया । अन्यथा जो सम्यग्दृष्टि अपनी संक्लेशकी बहुलतावश पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसे अनन्तसंसारी कहना नहीं बन सकता।
इस प्रकार प्रकृतमे 'सम्यक्त्व गुणके कारण अनन्त संसारवा छेद किया' अनलाके इस वचनका क्या आशय है यह स्पष्ट किया। आगे इसो प्रसंगसे जो 'पगेल' और 'अपरीत' शब्दोंका प्रयोग हुआ है इनका क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण करते है
मूलाचार अ० २ मा० ७२ की टीका 'गरीत' शब्द के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए संस्कृत टीकाकार लिखते है
ते होति-ने मवन्ति, परिससंसारा-परीतः परित्यक्तः परिमितो वा संसारः चतुगतिगमनं यंघां मै ते परीतसंसाराः परिश्यक्तसंसृतयो वा ।
परीत संसारी होते हैं अर्थात् जिनका संसार अर्थात् चतुतिगमन पर्गत अर्थात् परित्यक्स मा परिमित हो जाता है वे परीतसंगारो मा परित्यक्तसंसारो हैं ।
इसस विदित होता है कि सम्यग्दृष्टिकी परित्यक्तसंसारी और मिथ्याष्टिका अपरित्यक्त संसारी संज्ञा मुख्यरूपसे है, जो उचित ही है, क्योंकि मुख्यतासे मिथ्यात्वका नाम ही संसार है और मिथ्यात्व का दूर होना ही संसारका त्याग है । पण्डितप्रवर बनारसीदासजोने नाटक समयसारमें सम्यग्दष्टिको जिनेश्वरका लघुनन्दन इसी अभिप्रायसे सूचित किया है । विचार कर देखा जाय तो मिथ्यात्वका उच्छेद होना ही संसारका उच्छेद है। आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल इसी आशयसे कहा है । मिथ्यात्वरूपो महा मल्लके परास्त करनेपर अन्य कषामादिका नुच्छेद करना दुर्लभ नहीं है यह उक्त कथनका आशय है। अतएव प्रकृतमें धवलाके 'अपरित्तो संसारो श्रोहद्वितूण' पक्का अर्थ पूर्वोक्त प्रमाण करना ही उचित है।
धवलाके उक्त उल्लेखमें सम्यक्त्व गुणके कारण अनन्त या अपरीत संभारका नाशकर उससे उत्कृष्ट रूपसे परीत अर्थात् अर्थपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया यह कहा हं। सो इस उल्लेख परसे उक्त काल तक संसारको बनाये रखना सम्यकत्वका कार्य नहीं समझना चाहिए। फिर भी उक्त उल्लेखमें जो उत्कृष्टरूपसे 'अर्धपद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया' यह कहा गया है वह मात्र इस तथ्य को सूचित करता है कि ऐसे जीवका उत्कृष्ट काल इजना शेष रहता है, तभी समग्र आगमकी संगति बैठ सकती है। सम्यक्त्वगुण संभारके उच्छेदमें हेतु है, संसारके बनाये रखने में नहीं । सम्यक्त्व प्राप्त होने पर किसीका कम और किसीका अधिक जो संसार बना रहता है उसके अन्तरंग-बहिरंग हेतु अन्य है। उनमें प्रमुख हेतु काल लब्धि है। सब कार्यों की अपनी-अपनी काललब्धि होती है । इसके अनुसार अपने-अपने कालमें सच कार्य होकर आगेके कार्योंके लिए वे यथायोग्य हेतु संज्ञाको प्राप्त होते रहते हैं । जगत्का क्रम इसी पद्धतिसे चल रहा है और चलता रहेगा।
घवला पु० ६ पृ० २०५ में सम्यक्त्वके प्रसंगसे यह प्रश्न उठाया गया है कि सूत्र मात्र काललब्धि कहो है । उसमें इन लब्धियोंका सम्भव कसे है ? इसका समाधान करते हुए वीरसेन आचार्य लिखते हैं कि सूत्र में जो प्रति समय अनन्त गुणहीन अनुभाग उदीरणा, अनन्त गुणक्रमसे वर्धमान विशुद्धि और आचार्य के उपदेशकी प्राप्ति कही है वह सब उसी कालन्धिके होनेपर ही सम्भव