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________________ ५९६ जयपुर (खानिया ) नत्वचर्चा समयसार २१६ आदिम जवकी जो परिणामी नित्य सिद्ध किया है यह स्वमतका हो निरूपण है । परमलका खण्डन उसका मुख्य लक्ष्य नहीं है । प्रत्येक कार्य में बाह्य निमित्तका स्वीकार है इसमें सन्देह नहीं। चाहे वह अगुरुलघु गुणका परिणमन हो या अन्य परिणमन, बाह्य निमिचकी स्वीकृति सर्व है । किन्तु यह परिणामी स्वभाव में बाधा न आवे इस रूप में ही है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यका बलात् कार्य करता है इस रूपमें नहीं । प्रत्येक परिणाम बाह्य निमित्तसे मिलकर नहीं होता, उससे पृथक रूप में उपादान में ही होता है, इसलिए उस परिणामको उपा दान ही उत्पन्न करता है, बाह्य निमित्त नहीं । समयसार गाथा ८०, ८१, ८२ का यही आशय है । यही कारण है कि समयसार गाथा १०७ में 'करता है, परिणमता है, उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, त्यागता है, बता है' इत्यादि कथनको अद्भूत व्यवहारनयका वक्तभ्य कहा है। अपर पक्ष इस गाथा के इस वचन पर श्रृष्टि डालने का कष्ट करे - यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वृत्यं च पुद्गलवन्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिण मयुत्पादयति करोति बध्नाति वात्मेति विकल्पः स किलोपचारः । तथा व्याप्यव्यापकभावका अभाव होने पर भी प्राप्य को आत्मा ग्रहण करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता विकल्प होता है वह उपचार है । विकार्य और निर्वृत्य पुद्गल द्रव्यात्मक कर्म करता है और बजता है इत्यादिरूप जो । इससे अपर पक्षका जो यह विचार है कि 'वह गाथा निमित्त कारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानकी अपेक्षासे लिखी गई उसका निरास हो जायगा । गाथा में हो जब 'आदा' पद कर्ताके अर्थ में और ' पुग्गलम्' पद कर्मके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐसी अवस्था में यह लिखना कि वह गाथा निमित्त कारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानको अपेक्षासे लिखी गई बहुत बड़ा साहस है । टीका यही कहती है कि आत्मा और पुद्गल कर्ममें व्याप्यव्यापकभाव नहीं है, फिर भी जो यह कहा जाता है कि 'आत्माने पुद्दल कर्मको उत्पन्न किया वह अज्ञानीका विकल्पमात्र है, अतएव उपचरित कथन है, क्योंकि उपादान हो अपने कार्यको उत्पन्न करता है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यको उत्पन्न नहीं करता । मात्र अन्य द्रव्य अन्य के कार्यको उत्पन्न करता है ऐसा विकल्पमूलक व्यवहार होता है। हमने प्रश्न नं० १ व १६ में निमितककी स्वीकृति समयसार गाथा १०० के अनुमार ही दो है । किन्तु इससे अपर पक्ष प्रेरक निमित्त कर्ताका स्वच्छासे जैसा अर्थ करता है उसका समर्थन नहीं होता । विवाद शब्द प्रयोगमें नहीं है, उसके अर्थ करने में है । fair safest स्त्री आदि विषयोंके आधीन देखकर स्त्रीको उपदेश नहीं दिया जाता कि तुमने इसे अपने जान क्यों बना रखा है, किन्तु पुरुषको ही उसके यथार्थ कर्तव्यका भान कराया जाता है । इससे स्पष्ट है कि यह जीव परमें आनन्दकी मिथ्या कल्पनावश स्वयं विषयाधीन बनता है, विषय उसे पराधीन नहीं बनाते । यहाँ जीवके पराधीन बनने में विषय बाह्य निमित तो है, उसके कर्ता नहीं । इसी प्रकार कार्यमें बाह्य निमित्तका क्या स्थान है, इसका सर्वत्र निर्णय कर लेना चाहिए । तत्त्वार्थश्लोकातिक पृ० ४९० में यद्यपि प्रारम्भ में आकाश द्रश्य और अन्य द्रव्योंको आधाराधेयताका विचार किया गया है। परन्तु आगे वह कथन यहीं तक सीमित नहीं रहा है। किन्तु उम्र द्वारा सब द्रव्यों में उत्पादादिक विस्सा हैं या सहेतुक इसका उत्तर निश्चयनय और व्यवहारनय से दिया गया। | अतः अपर पक्षका
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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