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अयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा रूपता केवलज्ञानके प्रकट होने में बाधक थी अतः उनका ध्वंस (अक्रमरूपता) केवलज्ञान के प्रकट होने में निमित्त है, क्योंकि यह उल्लेख सर्वसम्मत है
निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः ।
अर्थात् निमित्तका अपाय हो जानेपर उसके निमित्तसे होनेवाला कार्य भी दूर हो जाता है। इस आगमसम्मत कार्यकारणकी प्रक्रियाको स्वीकृत करते हुए भी आप यह लिखते हैं कि 'वंसका अर्थ भावान्तर स्वशव करनेपर कर्मको ध्वंसाभावरूप अकम पर्यायको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त स्वीकार करना पड़ेगा।' सो आप निमित्तसे दूर क्यों भागना चाहते है ? सर्वत्र प्रसिद्ध कार्य-कारणभाषको शृङ्गलाको तोड़कर मास्तिर आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? कार्यकी सिद्धि में जब उपादान और निमित्त दोनों कारणोंकी उपयोगिता सर्वसम्मत है सब आप केवल उपादानका पक्ष लेकर निमित्तको क्यों छोड़ देना चाहते है ? उपादानका यह एकान्त हो समस्त विवादोंकी जड़ है। आगे आप लिखते हैं जिसका निमित्तरूपसे निर्देश भागममें दृष्टिगोचर नहीं होता।' सो क्या मोहमयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्य केवलम् ।
--तस्वार्थसूत्र अ० १०, सूत्र : इस सूत्रपर आपने लक्ष्य नहीं किया ? वहाँ स्पष्ट बतलाया है कि मोहका क्षय होनेके बाद शेष जानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
इसी सुत्रकी पूज्यपाद विरचित सर्वार्थसिद्धिके उल्लेखपर भी अपने लक्ष्य नहीं दिया ऐसा जान पड़ता है।
फलितार्थ निकालते हुए आप लिखते है कि पूर्व में जो ज्ञानाचरणो मरूप कर्मपर्याय अज्ञानभाबको उत्पत्तिका निमित्त थी उस निमित्तका अभान होनेसे अर्थात् उसके अकर्म रूप परिणम जानेसे अज्ञानभाषके निमित्तका अभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नमिसिक अज्ञान पर्यायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रकट हो गया ।'
यहाँ आप जब मानावरणादि कर्मपर्यायको अज्ञानभावकी उत्पत्तिमें निमित्त स्वीकार कर रहे है तब मानावरणीय कर्मपर्यायके ध्वंसको जो कि अकर्म पर्यायल्प होता है अज्ञानमावके अमावरूप केवलज्ञानको उत्पत्तिम निमित्त क्यों नहीं मानना चाहते हैं ? यह समझ में नहीं आता।
'केवलज्ञान स्वभावसे प्रकट हो गया' इसका अभिप्राय तो यह है कि केवलजान कहीं बाहर से नहीं आया । ज्ञानावरणकर्मके उदयसे जामगुणको जो केवलज्ञानका पर्याय अनादिकालसे प्रकट नहीं हो सकी थी वह साधरण करनेवाले ज्ञानावरण तया साथ ही शेष तीन घातियकर्मोंका क्षय हो जानेसे प्रकट हो जाती है। भेदनयसे तद्भव मोक्षगामीका ज्ञानगुण और अभेदनयसे उसको आत्मा ही केवलजानका परिणत हो रहा है, इसलिए उपादान कारणकी अपेक्षा केवलज्ञानका उपादान कारण उसका ज्ञान गुण और आत्मा है, परन्तु निमित्त कारणकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मों का शय निमित्त कारण है । अनेकान्तको शलीसे विचार करने पर सर्व विरोध दूर हो जाता है।
तत्त्वार्थसुत्र, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थों में औपशमिकादि पाँच भानोंका जो वर्णन आमा है उनमें केवलज्ञानको क्षायिकभाव कहा है और क्षायिकभावका लक्षण यही किया गया है कि जो कर्मोंके क्षबसे हो वह शायिकभाव है। जैसा कि कहा गया है