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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
समाधान यह है कि जब अपर पक्षने संसारी जीव ज्ञानावरणादि कमौसे बद्ध है इस कथनको असभूत पवहारनयका तप स्वीकार कर लिया है तो उसे असद्द्भूतव्यवहारनयके लक्षण के अनुसार यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि आत्मा में जो अपने विकारी गुणपर्यायोंके साथ बद्धता पाई जाती है असल ज्ञानव्याजाता है कि आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मोंसे है । ऐसा स्वीकार करना ही सत्यार्थ है। ऐसा स्वीकार कर लेनेसे सद्भूत व्यवहारनय और निश्चयनवसे भिन्न अद्भुत
हार विषयको व्यवस्था बन जाती है । फिर तो उसे आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित घोषित करने को अपर पक्षको आवश्यकता भी नहीं रह जायगो और नवमें सत्यार्थता भो उस पक्ष की प्रतीति में आ जायगी । अद्भूत व्यवहारनयके लक्षण आदिके विषय में विशेष खुलासा इसो उत्तर में पहले हो कर आये हैं । इससे अपर पक्ष के ध्यान में यह अच्छी तरह नाजायगा कि तरोड़-मरोड़ कर अपर पक्ष हो अपना पक्ष रख रहा हैं, हम नहीं । अपर पस यदि असद्वारके लक्षण बाधार पर लिखता तो उसे हमारे द्वारा प्रयोग किये गये 'उपचार' शब्द और 'आरोप' शब्दको सार्थकता भी समझ में जा जाती अपर पक्षको स्मरण रखना चाहिए कि इन शब्दों का प्रयोग न किया जाय तो असद्भूतव्यवहारके विषयका स्पष्टीकरण करना सम्भव ही नहीं हो सकता ।
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अपर पक्षका कहना है कि 'किन्तु एक नयकी दृष्टिमें दूसरे नयका विषय न होने से उस दूसरे नयके बिषयको अभूतार्थं कहा जाता | किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे नयका विषय आकाशके पुष्प के समान सर्वधा असत्यार्थ है ।'
समान यह है कि अद्भूत व्यवहारनयका विषय आकाशपुष्पके समान सर्वथा असत्यार्थ है यह तो हमने कहीं लिखा नहीं है और न ऐसा है हो। यह शब्दयोजना तो अपर पक्षने को है, इसलिए इसमें संशोधन उसीको करना है। फिर भी निश्चयनय वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करता है अतएव निषेध धर्मवाला है और असद्भूत व्यवहारनय दूसरे के धर्मको उससे भिन्न वस्तुका कहता है, इसलिए वह प्रतिषेध्य धर्मवाला है, इसलिए माचायोंने निश्चयनयके विषयको सर्वत्र भूतार्थ हो कहा है तथा व्यवहारनयके विषयको एक दृष्टिसे भतार्थ और दूसरी दृष्टिमे अभूतार्थ कहा है । जिसका निदर्शन आचार्य अमृतचन्द्रका यही वचन है जिसे अवर पक्षने यहाँ अपने पक्ष समर्थन में उपस्थित किया है ( समयसार गाथा १४ की टीका ) । अपर पक्षने उक्त टोकाववनका आशय लिखनेके बाद फलितार्थ रूपमें जो यह वचन लिखा है कि 'अर्थात् जीवकी एक ही बन्ध अवस्थाको व्यवहार और निश्चय दो भिन्न भिन्न दृष्टियोंसे देखने पर सत्यार्थ और असत्यार्थ दिखाई देती है ।" सो यह वचन उचित ही लिखा है। इसे अपर पक्षने किस आशवसे लिखा है यह तो हम जानते नहीं । किन्तु शब्दयोजना पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जीवको एक ही बन्ध अवस्था अर्थात् रागादिरूप जो बन्धपर्याय है वह व्यवहारनयसे सत्यार्थ है -- सद्भूत है। किन्तु शुद्ध दृष्टिसे असत्यार्थ है, क्योंकि शुद्धनय में भेदव्यवहार गौण है ।
इससे अपर को यह स्पष्ट हो जायगा कि असद्भूत व्यवहारनयके विषयका स्पष्टीकरण करते समय हमने जो 'आरोपादि' शब्दों का प्रयोग किया है यह विपरीत मान्यताका फल है ? या अपर पक्ष स्वयं अपनी विपरीत मान्यता बनाकर ऐसा लिख रहा है ।
श्लोकवातिक पृ० १५१ में आचार्य अमृतचन्द्रने 'सदेवं व्यवहारन यसमाश्रयणे' इत्यादि वचन किस