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शंका ९ और उसका समाधान
५. निश्चय जीव रागादिसे पर है इस तथ्यको समर्थन
अपर पक्षने हमारे 'निश्चयनयको अपेक्षा विचार करने पर जीव स्वयं अपने अपराधके कारण ब है, अन्य किसीने बलात् बाँध रखा हो और उसके कारण वह बंध रहा हो ऐसा नहीं है। इस वचनको आगमविरुद्ध लिखा है। अपर पक्षने यहाँपर अपने पक्षके समर्थन में जो प्रमाण उपस्थित किये हैं। उनमें बुद्ध निश्चयनय के विषयका निर्देश किया गया है। किन्तु यहाँपर 'आत्माश्रितो निश्चयनय:' इस क्षणको ध्यान में रखकर उक्त बचन लिखा गया है। अज्ञानी जीव रागादिरूप स्वयं परिणमता है, अन्य कोई उसे रागादिरूप परिणमाता नहीं । अतएव जीवके शुभाशुभ परिणाम भावबन्ध हैं और जीत्र उनसे बद्ध है इसे निश्चयस्वरूप मानने में आगमसे कहीं बाधा आती है इसे अपर पक्ष ही जाने ।
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हम इसी उत्तर में प्रवचनसार गा० १८६ को आचार्य जयरोनकृत टीकाका उद्धरण दे आगे हैं । उसमें रागादिको ही आत्मा करता है और उन्होंको भोगता है इसे निश्चयनयका लक्षण कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि अवर पक्षने जो उक्त वचनको आगमविरुद्ध लिखा है सो उस पक्षका ऐसा लिखना हो आगमविरुद्ध है, उक्त वचन आगगविरुद्ध नहीं है । इसके लिए द्रव्यसंग्रहको 'बवहारा सुहवुक्ख' इत्यादि गाथा देखिए ।
अपर पचने समयसार गाथा १३ की टीकाका 'स्वयमकस्य' इत्यादि वचन उद्धृतकर यह सिद्ध किया है कि अकेले जीव बन्धको उत्पत्ति नहीं हो सकती | समाधान यह है कि उक्त वचन द्वारा निश्चय व्यवहार ariant स्वीकार किया गया है। उस द्वारा बन्ध पर्यायी दृष्टिसे यह बतलाया गया है कि जीव स्वयं रागादि रूप परिणमता है, अतएव रागादिरूप बन्धपर्यायका निश्चयसे वह स्वयं कर्ता है, अन्य द्रव्य उसका कर्ता नहीं । किन्तु जब भी वह रागादिरूपसे परिणमता है तब उसको कर्मका आश्रय नियमसे होता है । इसोको अकेले जीवमं बन्धकी उत्पत्ति नहीं होती है यह कहा जाता है । उक्त वचनका इससे भिन्न कोई दूसरा आशय नहीं है। तभी ती समयसार में यह कहा है
यदि जीवका कर्मके साथ ही रागादि परिणाम होता है अर्थात् यदि दोनों मिलकर रागादिरूप परि जमते हैं ऐसा माना जाय तो इसप्रकार जीव और कर्म दोनों रागादिभावको प्राप्त हो जायें। किन्तु रागादि रूप परिणाम तो अकेले जीवके ही होता है, अतएव कर्मोदयरूप निमित्तसे भिन्न ही वह जीवका परिफाम हैं || १३९ - १४० ॥
रागादिका नाम भावबन्ध है इसे तो अपर पक्ष स्त्रीकार करेगा ही। ऐसी अवस्था में वह स्वयं निर्णय करे कि यह किसका परिणाम है और यथार्थ में इसे किसने किया है ? उसका अपर पक्ष यही उत्तर तो देगा कि उपादानरूपसे इसे स्वयं जीवने किया है, कर्म तो उसमें निमित्तमात्र हैं। इससे सिद्ध हुआ कि निश्चयसे जीव अपने अपराध के कारण स्वयं रागादि भावोंसे बद्ध हो रहा है । यदि वह कर्मका आश्रय एवं परमें इष्टानिष्ट बुद्धि करना छोड़ दे तो उसके रागादिके विलय होने में देर न लगे ।
६. उपचार तथा आरोप पदकी सार्थकता
संसारी जीव ज्ञानावरणादि कर्मोसे बद्ध है ऐसा कहना असद्भूत व्यवहारका भवतव्य है, इसे स्वीकार करके भी अपर पक्षने लिखा है कि 'किन्तु आपने इस सत्य सरल कथनको सरोड़-मरोड़ कर मारोपित यदि शब्दोंके प्रयोग द्वारा असत्य तथा जटिल बनानेका प्रयास किया है जो शोभनीय नहीं है ।' आदि ।