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________________ शंका ९ और उसका समाधान ५९३ आशयसे लिखा है इसके स्पष्टीकरण के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त 'व्यवहारनयसमाश्रयणे यह वचन ही पर्याप्त है। विशेष खुलासा पांच-छटे प्रदन के तृतीय उत्तर में किया ही है । हमने अन्य किन प्रश्नोंके उत्सरमें व्यवहारनयके विषयको सत्यार्थ किंग रूप में माना है इसका अपर पक्षने हमारे कथनका कोई प्रमाण अपस्थितन किया, इसलिए अगर पसके अन्य के उत्तरमें आपने भी ध्यवहारमयके विषयको सत्यार्थ माना है इस कथन पर हमने विशेष विचार करना उचित नहीं समझा । अपर पक्ष यदि प्रेरक निमित्तकारणका अर्थ व्यवहारनवसे करणनिमित्त या कर्तानिमित्त करता है और इस मान्यताका स्याग कर देता है कि समर्थ उपादान अनेक योग्यताओंवाला होता है, इसलिए जब जैसे निमिस मिलते है उनके अनुसार कार्य होता है। तथा इस तथ्यको स्वीकार कर लेता है कि उत्तर काल में जो कार्य होता है उसे समर्थ उपादान उस कार्यके अनुरूप अपनी विवक्षित एक द्रव्य-पर्याययोग्यतासे मम्पन्न होकर निश्चयसे स्वयं उत्पन्न करता है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान के सा होता है-उपादानमदशं कार्य भवतीति यावत् । कारण कि उसके बाद वह उसो कार्यको उत्पन्न करने को सामथ्र्यवाला है यह नियत है, तभी उन दोनों में उपादान-उपादेयभाव बनता है तो हमें 'स्व-परप्रत्यय पदमें जो 'पर' शब्दका प्रयोग हुआ है उसे प्रेरकनिमित्त कारण कहने में अणुमात्र भी आपत्ति नहीं है। उपासकाध्ययन इलोक १०६ में इसी आशयम 'प्रयते, शब्द का प्रयोग हुआ है । तथा २४७ लोकमें इसी अभिवायसे कर्मको क्लेशका कारण कहा गया है। निश्चय-च्यव. हारकी ऐसी युनि है । मात्र इसीको बायाभ्यन्तर उपाधिको समग्रता कहते हैं। अपर पक्षने लिखा है कि जिस प्रकारका जितने अनुभागको लिये घातिया कर्मोंका उदय होता है उससे आत्माके परिणाम अवश्य होते है ।' किन्तु यह कथन ठीक नहीं है। इस विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाम गाथा ५७में लिखते हैं कम्म वेदयमाणोजीची भावं करेदि जारिसर्य सो सेण तस्स कसा हवदि सिसासणे पविदं ॥५॥ कर्मको वेदता हुआ जोब जैसा भाव करता है, इससे वह उस ( भाव ) का कर्ता होता है ऐसा जिनशासनमें कहा है ॥ ५७ ॥ इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपना भाव करने में स्वतन्त्र है। उसमें कर्मको पराधीनता नहीं है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उसको टीकामें आचार्य जयसेन लिखते है कर्मको बेदर्नवाला अर्थात बीसराग निर्भर आनन्द्रलक्षण प्रचण्ड अखण्ड ज्ञानकाण्डपरिणत आत्म. भावनासे रहित होने के कारण और मन,वचन,कायलक्षण व्यापाररूप कर्मानुसे परिणत होनेके कारण जीव भाप कर्ता होकर जैसे भाव ( परिणाम ) को करता है वह जीच उसी करणभूत भाषके कारण कर्मभावको प्राप्त हुए उस रागादि भावका कर्ता होता है ऐसा शासन (परमागम ) में कहा है यह उन गाथाका तात्पर्य है। -मूल टीका आधारसे आचार्य अमृत चन्द्र उक्त गाधाकी टीका करते हुए लिखते हैअमुना यो येन प्रकारेण जीवेन भावः क्रियते स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति । इस विधिसे जीवके द्वारा जिस प्रकारसे जो भाव किया जाता है वह जीव उस भाषका उस प्रकारसे का होता है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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